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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९० १२२३ भाद्रवा वदि १४ चतुर्दशीके रोज अणशण करके स्वर्ग गए, तदा सर्व श्रावक मिलके अग्निसंस्कार करनेवास्ते जाते थके भरवजार में माणकचोकतक आए, तब कोई कार्यकर के पहली कहा गुरूमहाराजकावचन भूलके विश्रामके वास्ते रथीकों नीचे रखदीनी मणिग्रहण करने के वास्ते, दुग्धकापात्रभी न रखा, परंतु तहां एक विद्यावान योगी मणिग्रहण करने की इच्छासें दुग्धपात्र भरके एकांत बेठ गया पीछे फेर बहोत यत्न करके रथीकों उठाने लगेतोभी रथी ऊठी नहिं, तब सर्व नगर के विषेवातफेली अनुक्रमसें बादशाहनें भी सुनी तब बादशाह आप आके बहोत उठानेका उ पाय करा, परंतु रथी उहांसें उठी नहिं, तब बादसाह बोला कि सत्य है यहदेव, ये जैनका सेवडा जीताभी चमत्कारीथा, और मुवांभी चमत्कारी हुवा, इसका स्थान इहां ही होवो, तब श्रावकोंनें तहांहिज अग्निसंस्कार करा, तिस अवसरमें गुरुके मस्तकसें मणि फडाक शब्द करके योगीने दुग्धपात्र रक्खाथा, सो मणी दुग्धपात्रमें पडी, योगी उसकों ग्रहण करके अपने ठिकानें गया, तब मदनपालनें कहाकि गुरूमहाराज पहले मेरेसें कहा था, परमें जलदी के सबबसें भूल गया, तब सर्व साधु श्रावकोंने तिसकों ओलंभा दिया, अरुउसी ठिकानें श्रीजिनचन्द्रसूरीजीकी छतरी बनवाई बादशाह प्रमुख सर्वलोकोंनें बहोत बहुमानकरा, सर्व लोक जात देनें लगे, तिस ठिकाणे की अभीतक यात्रियोंसें पूजा होती है, इसमाफक प्रभावीक श्रीगुरूमहाराज भए, इहांसेति चतुर्थ पाटके विषे अतिशयवंत श्रीजिनचंद्रसूरि नाम देणा, ऐसा पद्मावतीनें वर For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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