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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० मोहाच्छादितकों छत्री रखनी चाहियै (सातमा) साधू जूते रहित है । मुजकों पगोंमे खडावु प्रमुख चाहियै ( आठमा ) साधू तो निर्मल है। इसवास्ते उनके शुक्लांबर है (अरु ) में तो क्रोध मान माया अरु लोभ, इन च्यारों कपायों करकें मेला हुँ ( इस वास्ते ) मुजे कषायला वस्त्र, ( अर्थात् ) गेरुसें रंगे हुवे भगमे वस्त्र रखने चाहिये (नवमा) साधु तो सचित्त जलके त्यागी है । ( इस वास्ते ) में छाणके सचित्त जल पीउंगा । स्नानभी करुंगा । (इस तरे) स्थूल मृपावादादिकसे निवृत्त हुवा । इस प्रकारसें मरीचिने स्वमतसें अपणी आजीविकाकेवास्ते लिंग बनाया । यही लिंग परिब्राजकोंका उत्पन्न भया । यह मरीचि इस भेपसें भगवान्केसाथ विचरता रहा ( तब ) लोक इसका साधुवोंसे विसदृश लिंग देखके पूछा (तब ) मरीचि, साधुका धर्म यथार्थ वतायके कहा (कि) ऐसा कठिन धर्म, मेरेसें पला नही ( तब ) मेंने यह लिंग धारण किया है । यह मरीचि समोसरणके बाहिर प्रदेशमें बैठा रहताथा ( उहां) जो कोई इसकेपास उपदेश सुनताथा, उसकुँ यथार्थ धर्मसें प्रतिबोध देके, भीतर भगवान्केपास भेजदेताथा (पीछे ) एक दासमें मरीचि रोगाग्रस्त हुवा । तब विचार कीया (कि ) में कुलिंगी हुँ । इसवास्ते साधु लोक तो मेरी वेयावच्च नहिं करते है (और) मुझे कराणीभी युक्त नही है । इससे अबके शरीर अच्छा होनेसे, मेरे लायक कोइ शिष्य करुंगा ( जब ) मरीचि अच्छा हुवा । पीछे थोडा दिनके वाद, एक कपिल नामे राजपुत्र, मरीच केपास धर्म सुणनेकू आया ( तब ) मरीचने यथार्थ साधु धर्मका For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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