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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ श्रेयांसका ने अपन) भया । दीक्षा लिये वाद, १ वर्षतक शुद्ध आहार साधूके लेने योग्य नहिं मिला । जहां भगवान् जावै ( वहां ) हाथी, घोडे, आभूषण, कन्या, इत्यादिक बहुतसे भेट करे । (परंतु ) शुद्ध आहार देनेकी विधि कोइ नही जानें ( क्यूं कि ) आगे कोई मिक्षाचर देखा नही था ॥ और भगवान् उस्समय त्यागी थे (इसवास्ते) आहार विगर कोइभी पदार्थ ग्रहण करा नहिं । ( पीछे ) १ वरपके वाद, वैशाख सुदि ३ कुं, हथनापुर आये । ( तहां ) श्री ऋषभदेव स्वामीका पड़पौत्र, श्रेयांसकुमरने जातिस्मरण ज्ञानके बलसें, भगवानकुं इक्षुरसका पारणा कराया । उस वखतमें, ५ दिव्य देवताने प्रगट करे। साढा १२ कोड सोनइ. यांकी वरषा करी । श्रेयांसका जश तीन भवनमें फेला । तब लोकोंने आयके पूछा (कि ) तुमने ऋषभदेव स्वामीकुं भिक्षार्थी केसेंजाने । तव श्रेयांस कुमरनें आपणे ( अरु ) ऋषभदेव स्वामीकेसाथ, ८ भवोंका संबंध कह्या ( इससेती) भगवान्कुं साधु मुद्रामें देखके, मेरेकुं जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न भया । तिनसें ८ भवोंका संबंध, तथा भिक्षार्थीपणा जाना ॥ इसका विस्तार सर्व आवश्यक सूत्रसें जाण लेना ॥ जब भगवानकुं एक वर्षतक शुद्ध आहार न मिला ( तब ) मच्छ, कच्छ प्रमुख ४ हजार पुरुष, जो साथमें दीक्षा लीवी थी (सो) भूखसे पीडित हुवे थके, वनमे गंगाके दोनूं किनारे, तापशपणा धारके, कंद मूल फल फूल खाते हुवे रहने लगे (और) श्री ऋषभदेवस्वामीका ध्यान जप आदि, ब्रह्मादि शब्दोंसे करने लगे ( इहांसे ) तापशादिककी साधु, For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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