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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९१ । विकेश । ९२ वैदेह । ९३ कच्छपति । ९४ भद्रदेव । ९५ वज्रदेव । ९६ सांद्रभद्र । ९७ सेतज । ९८ वत्सनाथ । ९९ अंगदेव । १०० नरोत्तम (यह) श्रीऋषभदेवजीके १०० पुत्रोंका नाम कहा ॥ ॥अथ राज्याभिषेक, विनीता नगरी अधिकारः॥ (इस अवसरमें) जीवोंके कषाय प्रबल होजानेसें । पूर्वोक्त हकारादि तीनों दंडनीतिका, लोक भय नहिं करने लगे (इस अवसरमें) लोकोंने सर्वसें अधिक, ज्ञानादि गुणों करके संयुक्त, श्रीऋषभदेवकों जानके, युगललोक, श्रीक्रमदेवकों कहते हुए । (कि) अब सर्व लोक दंडका भय नहि करते हैं । (तब ) मति १॥ श्रुति २ । अरु । अवधि ३। यह ज्ञानकरके युक्त (ऐसे) आदिकुमर युगलियोकुं कहते हुए (कि) जो राजा होता है (सो) दंडकर्ता है । फेर उसकी आज्ञा कोई उल्लंघन नहिं कर सकता है। ऐसे वचन सुनकर, वे युगलिये बोले (कि) ऐसा राजा हमारेभी होना चाहिये । (तब ) आदिकुमर बोले । जो तुमारी इछा ऐसी है (तो) नाभि कुलकरसे याचना करो । (तब) तिनोंने नाभिकुलकरसें वीनती करके (तथा) आज्ञा लेके, आदिकुमरकुं राज्याभिषेक करणेके लिये,-गंगाका जल लेनेकुं गए (इस समें) सौधर्मइंद्रका आसन कंपमान हुवा । तब अवधि ज्ञानसें, राज्याभिषेकका अवसर जानके, बहुतसे देवता देवीयोंके संग सौधर्मेंद्र आके, श्रीआदिकुमरका राज्याभिषेक, संपूर्ण विधिसंयुक्त, महोत्सवके साथ करा । (जिसवखत) छत्र, मुकुट, कुंडलादिक, For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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