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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || अब ५२ बोल गर्भितश्री ऋषभदेवजीका अधिकार लिख्यते ॥ इक्ष्वाकु भूमीके विषै, श्रीनाभिनामें, सातमा कुलकर हुवा जिसके मरुदेवी नामें पट्टराणी हुई, तिसकी कुखमें, सर्वार्थसिद्ध विमानथकी चवके, मिति आषाढ वदि ४ के दिन, भगवान उत्पन्न भए तब मरुदेवी मातायें, वृषभकों आदलेके, अग्निशिखा पर्यंत, १४ स्वप्ना प्रगटपणें मुखमें प्रवेश करता देखा सो इस प्रमाणे १४ स्वप्नोंका नाम लिखतें हैं, तंजाहा-गय-वसह-सिंह- अभिसेअदाम - ससि - दिणयरं - झयं परमसर - सागर - विमाण भवण - रयणुच्चय सिहिंच || वृषभ गज सिंह श्रीदेवता पुष्पमाला युग्म चंद्रमा सूरज इंद्रध्वज पूर्णकलश पद्मसरोवर क्षीरसमुद्र देवविमान भवन सुदर्शन विजय मंदर अचल विद्युन्मालि इन ५ मेरु आश्रित १६० विजय हैं इन क्षेत्रोंमे जैनधर्मादि भाव प्रायेंकरके अनादि अनंत है और भरतादिक १० क्षेत्रोंमे जैन धर्म पुण्यप्रभाव धर्मप्रणेता श्री तीर्थंकरादिक सर्व अनियत भाव सादि सांत होतें हैं और भरतादि १० क्षेत्रों में जो जो अनियत भाव नियत भाव है सो सर्व अनादि अनंत जाणना और इन सिवाय जो क्षेत्र हैं उनोंमे सर्व भाव प्रायैकरके अनादि अनंत भांगे हैं यह जगत् स्थितिस्वभाव अनादिसें है अनंत कालतक रहेगा एसा लोक स्वभाव है। और जीव पुद्गल पुण्य पापके कारणसें इस जगतमे विचित्रता देखणे में आवे है परंतु १४ रज्वात्मक इस लोकका कोइ कर्त्ता नहिं अनादि लोकानुभावसे हि वणा हूवा है यह निसंदेह है For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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