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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७८ नैवेद्य वगैरहः चढ़ाना युक्त नहीं वादिन बजाना रथ घुमाना कभीभी नहीं किया जावे और लवण उतारना वगैरह रात्रिमें नहीं करना ॥२ जिनमंदिरमें तंबोल खाना नहीं और परस्पर पंचायतकरना नहीं जिनमंदिरमें श्रावक पानी पीवे नहीं भोजन न करे अनुचितव्यापार न करे पहरावनीवगैरहः न करे परमेश्वरकोपीठदेके बैठे नहीं रसोई करे नहीं ॥ ३ जिनमंदिरमें हास्य, कुचेष्टा, परस्पर लड़ाई करना इत्यादि नहीं करे और केवलकीर्तिके निमित्त जिनमंदिरमें दानादिकार्यनहीं करे जिनभक्तिसे दानादिक करे और नाम वगेरेहः नहीं लिखे जिनमंदिरकोमलीननहीं करे यह करनेसे आशातनाहोवे हैं और स्त्रियोंकेसाथक्रीडा न करे ४ इत्यादि अर्थ धारण करे वैसा २ देवधरके मनमें प्रमोद उत्पन्न होवे अहो अत्यन्तशोभनजिनभवनका विधि कहा है इसके अनुसारसे स्थालिपुलाक न्याय करके औरभीसर्व विषय इसशास्त्रमें श्रेष्ठ संभव है इस लिए मैंभी यह मार्ग अंगीकार करूं परन्तु विंब अनायतन १ और स्त्री पूजा न करे यह संदेह दो पूछना है ऐसा विचारके देवधर टिप्पन वैसाही रखके सन्मार्गमें भया है चित्त जिसका ऐसा अपने घर आया । - इधरसे वागड़देशमें रहे हुए श्रीपूज्योंनेभी धारानगरीमें जो साधुओंको भेजेथे उन सबोंको पीछे बुलाए सिद्धान्त पढाया वादमें जिनदेवको जो आपने दीक्षा दियाथा उन्होंको आचार्यपद दिया दस १० वाचनाचार्य किए वाचनाचार्य पंडित जिनरक्षित गणि १ वा. शीलभद्रगणि २ वा. थिरचन्द्रगणि ३ ब्रह्मचन्द्रगणि ४ वा. विमलचन्द्रगणि ५ वा. वरदत्तगणि ६ वा. भुवनचन्द्रगणि ७ वा. For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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