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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६२ तब सोमचन्द्रवोले तेरेको निरुत्तर करनेके लिए और अपना मुखमण्डनके अर्थ, निरुत्तर होके चला गया कुछ नहीं बोलसका धर्मशालामें गए वहां अनेक अधिकारियोंकेपुत्रपंजिका पढ़ते हैं कोई वक्त आचार्यने परीक्षाके वास्ते पूछा कि भो सोमचन्द्र न विद्यते वकारो यत्र स नवकारः इति यथार्थनाम ? नहीं विद्यमान है वकार जिसमें वह नवकार यथार्थ नाम है तब शीघ्रबुद्धिमान सोमचन्द्र बोला आचार्य ऐसा नहींकहें किंतु नवकरणं नवकारः ऐसी व्युत्पत्ति करनी अर्थात् अंगुलियोंके बारहविश्वोंपर नववेर गुनना वह नवकार कहाजावे पंचपरमेष्ठीके १०८ गुणका सरण नवकारमें होता है ऐसा सुनके आचार्यने जाना अत्यन्त यह श्रेष्ठ उत्तर है इसके साथ कोई छात्र नहींबोलसकताहै अन्यदा लोचके दिनमें सोमचन्द्र पढ़नेको नहीं गया और व्याख्यान व्यवस्था तो ऐसी है की जो एकभी विद्यार्थी नहीं आवे और सब विद्यार्थी आजावें तथापि आचार्य पाठ देवेनहीं वाद आचार्य ने पाठ जब नहीं दिया तब गर्भसहित अधिकारियोंके पुत्रोंने आचार्यमिश्रसैं कहा हे भगवन् सोमचन्द्रके ठिकाने यह पाषाण रखा है आप व्याख्यान कहिए तब उन्होंके उपरोध (आग्रह) से आचार्यने व्याख्यान किया ॥ दूसरे दिन सोमचन्द्र आया पूछा गतदिनमें व्याख्यान मेरे बिना क्या आपने कहा तब आचार्य बोले तेरे ठिकाने इन छात्रोंने पाषाण रक्खा सोमचन्द्र बोला कौन पाषाण है और कौन नहीं है ऐसा अभी जाना जायगा जितनी पंजिका पढ़ीहै मेरेसेभीपूछ इन्होंसेभीपूछे जो यथार्थ व्याख्यान नहीं For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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