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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३९ अर्थः-दिखाया है वचन विशेष परमात्मको अच्छीतरहसे माने ऐसा जो और प्रगट है विवेक जिसका षट्चरण नाम षवतरूप जो चारित्र वह है संमत जिसके चतुर्मुखके जैसा ॥ १३३ ॥ धरइ न कवडुयं पि कुणइ, न वंधं जडाण मवि कयाइ । दोसायरं य चकं, सिरंमि न चडावए कयापि ॥ १३४ ॥ __ अर्थः-एक कौड़ीभी नहीं धारै मूर्योका कभी भी संग्रह नहीं करे दोषाकर याने चन्द्र और चक्रको मस्तकपर नहीं धारे श्लेशार्थ है ॥ १३४ ॥ संहरइ न जो सत्तो, गोरीए अप्पए नो नियमगं । सो कह तविवरीएण, संभुणा सह लहिज्जु पमा ॥१३५॥ अर्थ:-जो प्राणियोंका संहरण न करे गौरीको अपना अंग नहीं देवे वह कैसे निर्मल चारित्र करके शंभुकी उपमाको प्राप्त होवे ऐसा ॥ १३५ ॥ साइसएसु सग्गं गयेसु, जुगप्पवरसूरिनिअरेसु । सबाओ विजांगाओ, भुवणं भमिऊण स्संताउ ॥१३६॥ अर्थः-सातिशई युगप्रधान आचार्योंका समूह स्वर्ग जानेसे सर्व विद्या अंगना जगत्में फिरके श्रांत भइ ॥ १३६ ॥ तह वि न पत्तं पत्तं, जुगवं जवयणपंकएवासं। करिय परुप्पर मचंत, पणयओ हुंति सुहिआओ १३७ अर्थः-तथापि पात्र नहीं पाया युगपद् जिसके मुख कमलमें निवास करके परस्पर अत्यन्त प्रीतिसे सुखी भई ॥ १३७ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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