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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३३२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विधिः करके परलोककासाधक मोक्षकाकारक देदीप्यमान धारके ।। १०२ ।। जेण तओ पासत्थाह, तेणसेणाविहक्किया सम्मं । सत्थेहिं महत्थेहिं विआरिऊणं च परिचत्ता ॥ १०३ ॥ अर्थः- उसके बाद जिसने पासत्यादि चौरोंकी सेनाकोभी हटा दिया सम्यक शास्त्र महार्थसे विचारके त्याग किया अथवा विदारण करके ऐसे ॥ १०३ ॥ आसन्नसिद्धिया भव सत्थिया, सिवपहंमि संद्वाविया । निघुइ मुवंति जहते, पडंति नभीय भवारपणे ॥ १०४ ॥ अर्थ :- आसन है मोक्ष जाना जिन्होंको ऐसे भव्यसमूह मोक्षमार्ग में चले मोक्ष पहुंचे और जैसे भवारण्यमें नहीं पड़े ऐसा १०४ मुद्राणाययणगया चुक्का मग्गाओ जायसंदेहा । बहुजणपिद्विविलग्गा दुहिणो हुया समाहूआ ॥ १०५ ॥ अर्थः- भोले लोग अनायतनमें गये उत्पन्न हुआ है सन्देह जिन्होंको ऐसे सन्मार्गसे च्युतभए बहुत लोग पीछे लगे दुःखी भए ऐसोंको बुलाया जिन्होंने ऐसे ॥ १०५ ॥ दंसियमाययणं तेसिं, जत्थ विहिणा समं हवइ मेलो । गुरूपारतंतओ समय सुत्थओ जस्स निष्पत्ती ॥ १०६ ॥ अर्थ:-दिखाया आयतन उन्होंको जहां विधिकेसाथ सम्बन्ध होवे गुरु परतन्त्रतासे और समयसूत्रसे जिसकी निष्पत्ति है ॥ १०६ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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