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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ३२६ राजने मोक्षनगरके मार्गमें चलेहुए भव्योंको शरलमार्ग कहा जिससे वह सुखसे जावें ॥७५ ॥ गुणकणमवि परिकहिउँ, न सकई सक्कई वि जेसि फुडं। तसि जिणेसरसूरीणं, चरण सरणं पवजामि ॥ ७६ ॥ - अर्थ:-जिन्होंके सामने अच्छाकवि भी गुणका कण कहनेको नहीं समर्थ होवे है उन जिनेश्वरसूरि के चोंका शरण मैं अंगीकार करूं ॥ ७६ ॥ युगपवरागमजिणचंदसूरि विहिकहिय सूरि मंतपयो। सूरी असोगचंदो, महमणकुमुयं विकासेउ ॥ ७७॥ ___ अर्थः-युगप्रवर आगम जिन्होंका ऐसे श्रीजिनचंदसरि आचार्यका जो सूरिमंत्रपद उसका विधि कहा जिन्होंने ऐसे अशोकचंदसूरिः मेरे मनकुमुदको विकासित करो ॥ ७७॥ कहिय गुरु धम्मदेवो, धम्मदेवो गुरुउवझ्झाओअ । मझ्झावि तेसिं य दुरंत दुहहरो सो लहु होउ ॥७८॥ अर्थः-कहा गुरुधर्मदेव वेंहि गुरुः उपाध्यायपदधारक ऐसे मेरेभी दुरन्त दुःखके हरनेवाले ऐसे उनके प्रसादसे शीघ्रकल्याणकी प्राप्तिः होवे ॥ ७८ ॥ तस्स विणेओ निद्दलिअगुरुगओ जो हरिव हरिसीहो। . मझ्झगुरु गणि पवरो, सो महमणवंच्छियं कुणउ ॥ ७९ ॥ अर्थः-धर्मदेव उपाध्यायके शिष्य कुत्सितमतरूप बड़े हाथीको दलन करनेमें सिंह जैसे हरिसिंह आचार्य मेरेगुरुः गणिप्रवर वह मेरेको मनोवांछित देवो ॥ ७९ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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