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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ हेमंत्रिन्तेरेकारणसे मेरेको प्रतिबोधहूवाहै, जिससें जिसको प्रतिबोध होवे वह उसका गुरु होवे है, इस लिये मेने तेरेको कहा, और इसकारणसें तें मेरागुरुहि है और व्यवहारसें मेरा श्रावक है सुणके विशेषखुशीहूवा और आपहि मेरे शुद्धगुरु है इत्यादि कहके विशेष वंदना पूर्वक व्रतादि धर्मस्वीकार करके उनीका भक्तशुद्ध श्रावकभया, इसकाविशेष चरित्र ग्रंथान्तरसें जानना शत्रुजय गिरनार आदि तीर्थोकी यात्रा करते भये विहार क्रमसें मेवाड देशमें गये वहां उदेपुरके पास नदीमें उष्णकालके मध्यान्हसमय निरन्तर वेलुकी आतापना करते हुवेरहै तब कोइएकदिनके समय वहां नदीमें अकस्मात् कार्यनिमित्त मंत्री सहित राणेका आणाभया, वहां नदीमें मृतकवत् निचेष्टित पडेहूवे आचार्य को देखके रांणाजी बोलोकि यह इससमय नदीमें कोण अनाथ मृतक पडा हैं तब श्रावक मंत्री रांणेजीको बोला कि हेमहाराज यह अनाथ मृतक नहिं किंतु यह जैनी आचार्य है इससमय यहां नदीमें निरन्तर यह महात्मा निस्पृही वेलुकी आतापना तपस्या करतें हैं घोरतपस्वी है शरीरकी भी जिनोंको वांछा नहिं है एसे यहमाहात्मा है इत्यादि गुणसुणके देखके श्रीमहाराणानें खुशी होके श्रीजगञ्चंद्राचार्य को महातपाविरुददिया, इनोंके दोशिष्यभये ऐसी प्रसिद्धख्याति है, और इनोंके शिष्योंकी पाटपरंपरा शाखा कुल गछ वगेरे ऊपर लिखा है और ऊपरोक्तप्रसिद्धख्याति और ऊपरोक्त ग्रथोंसें तोविदितहोताहेकि श्रीमुनिसुंदरसूरिजीने पूर्वापर संबंध और ऊपरोक्त ग्रन्थोंका विचार या अवलोकन नहिं क. For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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