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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ ३०० की शिष्यसंततीमें सर्वत्र जगतमे प्रसिद्ध भया, इसीतरे प्राकृत अभिधानराजेन्द्र शब्दकोशके भाग. चोथेमें पृष्ठ ७३३ खकारादि शब्दाधिकारमें खरतरशब्द लिखा है तद् यथा-खरतर-खरतर-पुं. वैक्रम संवत् १०८० श्रीपत्तने वादिनो जित्वा खरतरेत्याख्यं विरुदं प्राप्तेन जिनेश्वरसरिणा प्रवर्तिते गच्छे, इति आत्मप्रबोध १४१ आसीत् तत्पादपंकजैकमधुकृत् श्रीवर्द्धमानाभिधः, सूरिस्तस्य जिनेश्वराख्यगणभृजातो विनेयोत्तमः यःप्रापत् शिवसिद्धिपंक्ति (संवत् १०८०) शरदि श्रीपत्तने वादिनो,जित्वा सदविरुदं कृती खरतरेत्याख्यां नृपादेमुखात् अष्ट० ३२ अष्टकवृत्तिः" और श्रीउद्योतनसरिजीके दूसरे शिष्य श्रीसर्वदेवमूरिजीकी संतति चली सो वडगच्छके नामसें प्रसिद्ध भई, यह संतती प्रायें मुनिरत्न अथवा मणिरत्नसरिजीपर्यंत चली एसा संभव है, और चित्रवालगच्छ स्वतंत्र अलगहि था ऐसा शास्त्रानुसारसें संभवे है, और इस गच्छकी पट्टावलीभी श्रीउद्योतनसूरिजी वगेरेसे संबंध रखनेवाली अलगहि मालूम होवे है, और सर्वदेवसूरिजीकी पाटपरंपरामें श्रीचित्रवालगच्छकी पट्टावलीकों संबंध रखनेसें कीसी तरहका प्रयोजन नहिं संभवे है और इस चित्रवाल गच्छके यह एकार्थपर्याय शब्द है, निग्रंथ, कोटिक, चंद्र, वनवासी सुविहित पक्ष, वडगच्छ, वृद्धगच्छ, तपगच्छेति वा वज्रशाखेति चंद्रकुलमिति वा यह सदृशनाम शाखावाले गच्छकों अपर गच्छके साथ मिलानेका श्रीमुनिसुंदरसूरिजीने स्वरचितपट्टावलीमें बहुतहि For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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