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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९८ अमुक नगरके अमुक राजाने श्रीजगचंद्रसूरिजीको हीरलाविरुद दिया यहभी नहीं लिखा है तथापि आप लोग अपनी तपगच्छकी पट्टावलीसे उक्त वातोंको मानते हो तो श्रीसमवायांगसूत्रकी टीकाके-अंतमें (श्रीमत्सरिजिनेश्वरस्य जयिनो दपीयसां वाग्मिनां) इस श्रीअभयदेवमूरिजीके वाक्यसे तथा अनेक शास्त्रसंमत खरतरगच्छकी पट्टावलीके लेखसे विदित होता है कि वाचाल और अहंकारी चैत्यवासियोंको जीतनेसे खरेतरे याने खरतर विरुदधारक श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराज भूमंडल में प्रख्यात हुए उनके शिष्य नवांगटीकाकार श्रीस्थंभनपार्श्वनाथप्रतिमा प्रगटको श्रीअभयदेवसरिजी महाराज हुए जिनसे खरतर नामका गच्छ प्रतिष्ठा को प्राप्त हुवा इन अपने पूर्वजोंकी लिखी हुई सत्यवातोंको क्यों नहीं मानते हो? ३ [प्रश्न ] संवत् १२८५ वर्षके पहले रचे हुए किस ग्रंथमें श्री. जगचंद्रसूरिजीका बृहत् या वड़गच्छ वा वृद्धगच्छ लिखा है ? ४ [प्रश्न] धर्मसागरउपाध्यायके ग्रंथों में आगमविरुद्ध अनेक कदाग्रह वचनोंको तथा द्वेषसे परगच्छवालोंकी निंदारूप कपोलकल्पित महामिथ्या कटु वचनोंको उनके गुर्वादिकने अपने रचे द्वादशजल्पपदआदिग्रंथोंमें जलशरणद्वारा मिथ्याठहराये हैं या नहीं? और उन मिथ्यावचनोंको कोई माने वह गुरुआज्ञा लोपी हो ऐसा लिखा है या नहीं ? इन उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर धर्मसागरादिमताश्रिततपोटमतवाले सत्यप्रकाशित करें। इत्यलं किं बहुना ? __ और यह ऊपरोक्त प्रश्नोत्तर और प्रश्न सप्रमाणसत्यतापूर्वक दिये हैं सो सद्गुणीवरोंके भक्तिनिमित्त गुणानुरागसे गुणानुरागी For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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