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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८९ महाराजने भी बालजीवोंके कुतर्क वा उनकी अज्ञानताको दूर करनेके लिये उपर्युक्त श्लोकोंमें संक्षेपप्रशंसासें अपने कुलका नाम चंद्रकुल उसमें अपने दादा गुरुका नाम श्रीवर्द्धमानसूरिजी उनके शिष्य अपने गुरुका नाम श्रीजिनेश्वरसूरिजी श्रीबुद्धिसागरसूरिजी उनके लघुशिष्य श्री अभयदेवसूरिजीनें यह श्रीभगवती सूत्रकी टीका करी श्रीजिनेश्वरसूरिजी तथा श्रीबुद्धिसागरसूरिजीके पाटे बडे शिष्य श्रीजिनचंद्रसूरिजी की आज्ञासें और श्रीजिनेश्वरसूरिजी के शिष्य श्रीजिनभद्रसूरिजी तथा श्रीअभयदेवसूरिजी के चरणसेवक श्रीयशश्चंद्रगणिजीके सहायसें टीका करनें में आई, यह श्रीअभयदेव - सूरिजी महाराजनें अपनी गुरुशिष्यपरम्परा स्पष्ट लिख बतलाई है, और यह पाटपरंपरा खरतर गच्छवालोंकी है, उसमें नवांगटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी हुवे, तपगच्छके श्रीमुनिसुंदरसूरिजी - महाराजविरचित श्रीउपदेश तरंगिणी ग्रंथ में - " नवांगटीकाकार श्री - अभयदेवसूरिजी उनके शिष्य श्रीजिनवल्लभसूरिजी प्रशिष्य श्रीजिनदत्तसूरिजी इन प्रभाविक आचार्योंकी स्तुतिद्वारा खरतरगच्छवालोंकी गुरुशिष्यप्रशिष्यपाटपरंपरा दिखलाई है कि व्याख्याताऽभयदेवसूरिरमलप्रज्ञो नवांग्या पुनः, भव्यानां जिनदत्तसूरिरऽददद्दीक्षां सहस्रस्य तु ॥ प्रौढिं श्रीजिनवल्लभो गुरुरऽधीज्ज्ञानादिलक्ष्म्या पुनः, ग्रंथान् श्रीतिलकश्चकार विविधान् चंद्रप्रभाचार्यवत् ॥ १ ॥ व्याख्या - निर्मलबुद्धिवाले श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने नवअंगसूत्रों की टीका करी, उनके प्रशिष्य श्रीजिनदत्तसूरिजी महाराजने १९ दत्तसूरि० For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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