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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org · २८६ " उत्तर, श्रीखरतरगच्छ की पट्टावली ग्रंथमें लिखा है कि, तत्प त्रिचत्वारिंशत्तमः श्रीजिनवल्लभसूरिः स च प्रथमं कूर्च पुरगच्छीयचैत्यवासीजिनेश्वरसूरेः शिष्योऽभूत् ततश्च एकदा दशवैकालिकं पठन् सन् औषधादिकं कुर्वाणं अतिप्रमादिनं स्वगुरुं विलोक्य उद्विशचितः संजातः तदनंतरं स्वगुरुमापृच्छय शुद्ध क्रियानिधीनां श्रीअभयदेवसूरीणां पार्श्वेऽगात्, तदुपसंपदं गृहीत्वा तेषामेव शिष्यव संजात, क्रमेण सकलशास्त्राण्यऽधीत्य महाविद्वान् बभूव, तथा पिंडविशुद्धिप्रकरण, पडशीतिप्रकरण, प्रमुखाऽनेकशास्त्राणि कृतवान् तथा अष्टादशसहस्रप्रमितवागड श्राद्धान् प्रतिबोधितवान् तथा पुनचित्रकूटनगरे श्रीगुरुभिः चंडिका प्रतिबोधिता जीवहिंसात्याजिता धर्मप्रभावात्सधनीभूतसाधारणश्राद्धेन कारितस्य द्विसप्ततिजिनालयमंडितश्रीमहावीरस्वामीचैत्यस्य प्रतिष्ठा कृता तथा तत्रैव पुरे संवत् सागररसरुद्र (१९६७) मिते श्रीअभयदेवसूरिवचनादेव भद्राचार्येण तेषां पदस्थापना कृता व्याख्या - श्रीमहावीरस्वामीकी संतानपाटपरं परामें ४२ वें पाटे नवांगटीकाकार श्रीअभयदेवसूरिमहाराज हुवे, उनके पाटपर ४३ वें श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज हुवे, प्रथमकूर्च्चपुर गच्छीय चैत्यवासीय श्रीजिनेश्वरसूरिजी के शिष्य थे, एक दिन दश चैका लिकसूत्र को पढते हुवे अतिप्रमादी औषधादि करनेवाले अपने गुरु जिनेश्वरसूरिजी को देखकर उद्विग्नचित्त हुवे, उसके अनंतर अपने गुरुसें पूछकर शुद्धक्रिया के निधाननवांगटीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरिजी महाराजके पासगए, उनसें उपसंपदग्रहण करके उन्हींके याने नवांगटीकाकार श्री अभयदेवसूरिजी महाराजके शिष्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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