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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २४२ यह गाथा प्रगटार्थ है, आगाथा स्वाध्यायकरति हूई, आचार्य श्रीसंबधि महत्तरापदप्राप्तकरनेवाली मुख्यसाध्वीने सुणी, वादमे उसमुख्यसाध्वीने उसमाथाकों आचार्यश्रीके सन्मुखआकर सुणाइ, वाद आचार्यश्रीबोले यहअर्थपहिलेहि हमनें जाणा है, और कोइ अवसरमें श्रीपूज्य पालणपुरपधारे, वहांपर आचार्य संबंधि भक्तश्रावकहैं, उणश्रावकोंका जहाज समुद्रके अंदर व्यापारके लिये चले हैं, वे जहाज क्रयाणोसेंभरके भेजे हवेहैं, उणक्रयाणोंसें भरेहूवे जहाज उणोंके समुद्रके भीतर मार्गमें चालतांथकां इसतरे वात सुणनेमें आइ कि क्रयाणोंसें भरेहूवे जहाज थे सो समुद्रकेभीतरडूबगये, बादमें श्रावक उसबातकों सुणकर, बहुतहि जादा अपणे मनमे उदास हूवे, वह श्रावक श्रीअभयदेव सरिजीके याद करणेके साथहि उपाश्रयमे आये, आचार्य श्रीकों वंदना करी, वादमें उण श्रावकोंको आचार्य श्रीने पूछाकि, हे धर्मशील श्रावको आज तुमको वंदना करणेमें देरी केसे हुइ, याने किस कारणसें आज तुमलोक वंदना करणेको मोडे आये, उण श्रावकोंने कहा, हेभगवन् किसिकारणकरके हमारा मोडा आणावा, पूज्यपाद आचार्यश्रीनें कहा । क्या कारणहै, तब श्रावकोंने कहा, हे भगवान् समुद्रके अंदर जहाजोंका डूबना सुणकर हमलोक दुखी हुवे है, इस कारणसें हमलोक वंदनाके वक्तपर नहि आसके, यहवातसुणनेके बादमें, क्षणमात्रअपनेमनमें ध्यानधरके आचार्यश्रीनें कहा, हे श्रावको इस विषयमें तुमारे दुख करणा नहिं श्रीगुरुदेवके प्रभावसे अछाहोवेगा, इसतरे श्रेष्ठभावार्थकों कहेनेवालेहि सत्पुरुषहोवेहै, यहसुणकर श्रावक हर्पितहवे, For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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