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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar २३१ का शिष्यधर्मसागरने अनेक उत्सूत्रबोलोंकी प्ररूपणा की, और अनेक गुरुआम्नायाश्रितविरुद्धबोलोंकी अशुद्धप्ररूपणा की, तव श्रीजिनचन्द्रसूरिजी विहार करते अणहिलपुर पाटणमे पधारे, तब यह वृत्तांत श्रीजिनचन्द्रसूरिजीने सुणा, तब सर्व गच्छमताश्रित सर्व सभाजनसमक्ष जाहिर शास्त्रार्थ धर्मसागरके साथ श्रीजीका हूवा तिसमें निर्णयार्थ अंतिमसभामें धर्मसागरको बुलाया, अपणा पक्ष निर्बल जाणके, सभामें आणेवास्ते नट गया, तब धर्मसागरका पक्ष झूठा जाण, सर्व गच्छवासीयोंने, और मतवासीयोंने शास्त्र देख श्रीजिनचन्द्रसूरिजी आश्रित पक्ष सत्य जाण, सर्वनें सही करी, याने दशकत किये, वह सहीपत्र, पाटण, जेसलमेर बीकानेर आदि भंडारमें रखा गया था, और श्रीविजयदानसूरिजीने धर्मसागरका बनाया हुवा, कुमतिकंदकुद्दालग्रंथकों जलशरण किया, और गच्छव्यवस्थाश्रित, ७ और १३ बोल लिखे, और धर्मसागरकों गच्छ बाहिर किया, इत्यादि व्यवस्था उस समय हुइ थी, सो कुमतिविषजांगुलि १ और श्रीजसविजयजीकृत आगमविरुद्ध अष्टोत्तरशत उत्सूत्र बोल २ श्री सोहमकुलरत्नपट्टावलि दीपविजय कविकृत ३ आदि ग्रंथ देखणेसें प्रगटपणे सत्यहि मालूम होवे है, इसी लियेहि लघुपौशालीयतपा शाखामें श्रीविजयसेनसूरीजीके वादमें दोय गद्दी भइ है, सो आणन्दसूरि, १ तथा देवसूरि, २ इस नामर्से प्रसिद्ध है, सो इस्सेंभी धर्मसागर और धर्मसागरकृत प्ररूपणाकाहि मुख्य कारण जाणा जाता है, और उस समय तो इन सर्व अशुद्ध प्ररूपणाओं का निषेधहि किया गया है, और इसतरे तपगच्छनायकनें अपणें गच्छमें हुक्म जाहिर कियाथा कि, धर्मसागरका बनाया हुआ ग्रंथ उसके अंदरसें कोइभी गीतार्थ अपणे बनाये हुवे ग्रंथमें एकभी बात लावेगा तो गच्छनायकके तरफसे बडा ठबका मिलेगा, और इसतरेका कोइभी नवीन ग्रंथ होवे सो सव गीतार्थके शोधे सिवाय प्रमाण करे नहिं, इत्यादि व्यवस्था गच्छकी लिखि है, इसलिये मालूम होवे है कि, तपगच्छनायकोंने धर्मसागरकी करी हुइ तिससमयकी अशुद्ध प्ररूपणायें कबुल नहिं करी थी और शुद्ध प्ररूपणा मार्गमेहि रहे, वादमें श्रीविजयसेनसूरिजीके पीछे मुख्य शिष्य देवसूरिजीनें अपणा मामा भाणेज नाता होणेसें, विजयसेनसूरिजीके वचनोंका अनादर करके, और धर्मसागरकी अशुद्ध प्ररूपणा कबुल करके, तीन पीढीसें गच्छबाहिर किये हुवे धर्मसागरकों पीछा गच्छमें लिया, और गच्छमें भेद करके अ. पणे आपसेंहि स्वतंत्र आचार्य हुवा, तबसें दोय आचार्य गच्छमें हुये, एक विन - For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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