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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acha २१६ श्रीजिनेश्वरसूरिजी महाराजनें स्त्रीयोंका वीर्य स्खलित हुवा देखके (विचार किया कि पहिलेभी अंबररंतर इत्यादि २ गाथाओंका अर्थ शृंगाररसवर्णनपूर्वक मुनियोंको रात्रिमें कहा तब मार्गमें जाति हुइ राजकन्याने सुणके बुद्धिशाली पुन्यवान् कोइ पुरुष है इसके साथ पाणिग्रहण करणेसें संसारिकविषयसुखबहुतश्रेष्ठ होगा, ऐसा मानकर-शृंगाररससें परवस हुइ थकी-आधि रात्रिसमय उपाश्रयके द्वार पास आयके किवाड खडकायें और अवाजदी, तब गुरु महाराजनें कहा ये कुगतिद्वार प्राप्त हुवा है, उतने फेर अवाज आइ में राजकन्या हूं दरवाजा जलदि उघाडो ऐसा कहने पर आप उठकर दरवाजे पास जाकर कपाट खोले और कहा कि क्या प्रयोजन है ! तब उस राजकन्याने शृंगार वर्णनसें लेकर अपना अभिप्राय हुवाथा सो कहा और कहाके मेरा पाणिग्रहण करो तब आचार्यश्रीनें कहा हेभद्रे ! हम साधु है हमको पाणिग्रहण करणा नहिं कल्पे ऐसा कहके बीभत्सरसका वर्णन किया तब वा राजकन्या छी छी करती हुइ विरक्तहोकर अपने ठिकाने गइ, वादव्याख्यानमे शृंगाररसका वर्णनकरनेसें ऐसाअनर्थहुवा श्रीअभयदेवसरिजी महाराजकों एकांतमें ऐसा ओलंभा दिया, कि आत्मार्थीकों शृंगारादिक रसोंका बहुत पोषण करना न चाहिये, ऐसा गुरुका वचन सुनके आत्मशुद्धिके अर्थ प्रायश्चित्तमांगा, तब गुरु महाराजनें कहा 'छमासतक आंबिलकी तपसा करे और छाछकी आछ पी' तब शुद्धी होवे, तब श्रीअभयदेवसूरिजी गुरुका वचन तहत्ति करके इसी मुजब For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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