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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • २०४ पूजनीक हुइ है, जैसा तीर्थंकरके आगे बलिकी रचना करते हैं उस माफक राणीके आगे भी कितनेक पुरुषोंने बलिकी रचना करी है, राजाने विचारा कि जो मेने न्यायवादी सुविहित मुनियोंकू गुरुपणे अंगीकार करें हैं, उणोका पीच्छा अभीतक पापी नहिं छोडतें है, बादमे राजाने कहा उसीहि पुरुषको जेसें शीघ्र राणीकेपासमे जाके कहो, की राजा इसतरे कहेलातें है, जो तेरे आगे किसीने भेट दीया है उसमेंसें एक सोपारी भी जो लिया तो तेरेको मेरे यहां रहेणेकुं जगा नहिं है, वादमें उस राजपुरुष पूर्वोक्तप्रमाणे कहेणेसें भय प्राप्त होके राणीने कहा अहो लोको जो वस्तु जो लाया है वह वस्तु उसको अपणे घर लेजाना एक सोपारी मात्रसेंभी मेरे प्रयोजन नहिं हैं इसतरे यह उपायभी निस्फल हुवा, वादमें उन चैत्यवासी मुनियोंने ४ उपाय विचारा कि जो राजा देशांतरसें आये हुवे मुनियोंको बहुत मानेगा तो सर्वमंदिरोंको छोडके देशांतरमें चले जावेंगें, ऐसा प्रघोष नगरमें करा, और नगरके बाहिर जावै ते यह बात किसी मनुष्यने राजाकुं कही राजाने कहा कि बहूतहि अच्छा है जहां रुचे वहां जावो, राजाने मंदिरोंमे ब्राह्मणकों वेतनसें पूजारी रखे, तुमारेकुं इन मंदिरोंमे पूजा करणी ऐसा कहेके, वादमे कोइ चैत्यवासी मुनि किसी मिस करके अपणे मंदिरमे आये, कोइ किसी मिस करके पीछे आये, किंबहुना, सर्वचैत्यवासी मिस कर २ पीछे चले आये सर्व अपणे २ मंदिरोंमे रहे श्रीमान् वर्द्धमानसूरिजी भी सपरिवार राजाके मान्यनीक पूजनीक होणेसें अस्खलितविहारपूर्वक सर्वत्र For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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