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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९५ चैत्यअनुवृत्ति श्रावकभि करते है, तो चैत्यकी अनुवृत्ति कैसे नहोवै, निखओर श्रीमंतश्रावक इसवक्त मंदिरकी देखरेख करते है यद्यपि दुःषमकालके माहात्म्यसै कितनेक प्रमादि होवे तोभी और सुश्रद्धालु श्रावक चैत्यकी संभाल करे है, देखते है इस वक्त कितनेक पुन्यवान् श्रावक अपणा कुटंबका भार समर्थ पुत्रपर रखके जिनमंदिरकी संभालहि निरंतरकरते है इसकारणसै श्रावक कृत संभाल चैत्य अनुवृत्ति सिद्ध है, इस वक्तके तुमारे जैसे आचार्य चैत्यके उपदेशसे अनेक आरंभ करते हुवे व्यर्थहि क्युं तकलीफ करते हैं, ओर तीर्थ अव्यवच्छेदका कारण अपवाद सेवनकर चैत्यवासका स्थापनकीया सोमि सिद्धांतका नहि जाणना तुमारा प्रगट करे है, इसका और अर्थ होनेसे, जो कोइयति ज्ञानादिगुणसे अधिक होवे जिसविना संघादिक केवडे कार्य नहि सिद्धहोतेहोवे तब वो गुणाधिक मुनि स्वगुणमें वीर्य फोरै यह अर्थ कहनेवाला जो जेण० इस गाथाका उत्तरार्ध है ॥ सो तेणतम्मिक सव्वत्थामं न हावेइ इति अर्थ वो ज्ञानादि गुणाधिक संघादि कार्य में सर्वशक्ति बल न घटावे इस्सै तुमारि इष्टसिद्धि न होवै इसप्रकार से सर्व वादिने कही युक्ति निराकरण से यतियोंका जिनभवनमें निवासका निषेध सिद्ध होनेसे अपने पक्ष मे समाधान कहते है, जिनगृहनिवास - नियोंकुं अयोग्य हे देवद्रव्यउपभोगादिवाला होनेसें जिनप्रतिमाके आगे चढाया हुवा नैवेद्यवत् | यह देवद्रव्यउपभोगादिमत्वहेतु For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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