SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७१ आये हैं उणोंके पास जावो, तुमकों बैकुंठ जाणेंका मार्ग बतावेगा, एसा कहकर देवता अदृश्य होगया, तब तीनोंजणों स्नानकर के उपासरे आके श्रीगुरुमहाराजसें वैकुंठका मार्ग पूछा, तब उस खत एक भाईके मस्तकपर चोटि छोटि मछली खान करते रहगइथी सो देखायके विनय दयामूल जिनधर्मका उपदेश दिया, तब तिनोंजणें प्रतिबोध पायके दीक्षा लीवी तब श्रीगुरुमहाराज योगादिक बहायके सर्व सिद्धांत पढायके शिवदाशका श्रीजिनेश्वरसूरि बुद्धिदाशका बुद्धिसागर ऐसा नाम करा, एकदा श्री जिनेश्वरसूरिजीनें कहा कि हे स्वामिन जो आपकी आज्ञा होय तो गुजरातदेशमें जावें, उहां जाणेंसें बहुत लाभ होगा तब श्रीवर्द्धमानसूरिजी बोले कि गुजरातमें अभी हीनाचारी चैत्यवासीयोंका बहोत प्रचार वध गया है इससे वे लोक अनेक प्रकारसें उपद्रव करेंगें, तब श्रीजिनेश्वरसूरिजी बोले कि जूंबांके भयसें क्या वस्त्र डाल देना उचित है इससे आप प्रसन्न चित्रों आज्ञा देवो, तब गुरुमहाराज श्रीबुद्धिसागरजीकों आचार्यपद देके गुर्जरदेशमें विहार करने की आज्ञा दिनी तब श्रीजिनेश्वरसूरिजी श्रीबुद्धिसागरसूरिजी दोनों गुजरातदेशमें विचरणें लगे और कल्याणवती साधवीकों महत्तरापद देकर साधवीयोंके साथ विहार करने की आज्ञादी || अब कोई एक दिन के अवसर में श्रीमान् पंडितजिनेश्वरसूरिजी स्वपरसिद्धांतपारंगामी होके गुर्जरदेश और अणहिलपाटणसहेर में विशेष लाभादिकजाणके विनयपूर्वक श्रीगुरुमहाराजसें इस प्रकारसे बोले कि हे भगवन् For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy