SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५५ इदानीं, दसआसायणत्ति, सप्तत्रिंशत्तमं द्वारमाह ॥ अब दशआशातनाका सैतीसमा ( ३७ ) द्वार कहतें हैं | तत्र मूलम् यथा - तंबोल १ पाण २ भोयण, ३ पाणह ४, त्थी - भोग ५ सुयण ६ निट्ठिवणं, ७ मुत्तु ८ चारं ९ जूयं १०, वझेजिणमंदिर संतो ॥ ३७ ॥ व्याख्या - तांबूल १ पानीपीणा २ भोजन ३ उपानत ४ ( जूती ) स्त्रीभोग ५ ( मैथुन ) स्वपन निद्रा करना ६ निष्ठीवन थूक ७ मूत्र, लघुनीत ८ पुरीषं, वडनीत ९ द्यूतमदिरादिवर्जयेत्, जुआमदिरादियत्ल से बर्जे १० विवेकी पुरुष जिनमंदिर के अंदर श्रीतीर्थंकर भगवानकी आशातनाका हेतु होणेसे यह १० मोटी आशातनाका सुश्रावकों कुं विशेषकरके त्याग करना उचित है, अन्यथा अनंत भवभ्रमण करना होगा यह निस्संदेह है, इति ३७ सप्तत्रिंशत्तमद्वारः || आसाणा उचुलसी, इति अष्टात्रिंशत्तमं द्वारमाह, खेलंकेलिमित्यादि शार्दूलवृत्त चतुष्टयमिदं यथा विदितं व्याख्यायते ॥ अब चौरासी आशातनाका अडतीसमा द्वार कहतें हैं | तत्र मूलम् यथा - खेलं १ केलि २ कलिं ३ कला ४ कुललयं ५ तंबोल ६ मुग्गालयं, ७ गाली ८ कंगुलिया ९ सरीरधुवणं १० कैसे ११ नहे १२ लोहियं, १३, भत्तोसं १४ तय १५ पित्त १६ वंत १७ दसणे १८ विस्सामणं १९ दामणं, २०, दंत २१ च्छी २२ नह २३ गंड २४ नासिय २५ सिरो २६ सोच २७ छवीणं मलं, २८ ॥ ४३८ || १ || मंतं २९ मीलण ३० लेख्कयं ३१ विभजणं ३२ भंडार ३३ दुट्ठासणं, ३४, छाणी ३५ कप्पड For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy