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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ तब कालसंदीपक दोडके पाताल कलशमें चला गया, सत्यकीने तहां जाकर काल संदीपककों मार डाला, तिस पीछे सत्यकी विद्याधर चक्रवर्ति हुआ, तीन संध्यामें सर्व तीर्थंकरों कों वंदना करके नाटक करता हुआ, तब इंद्रनें सत्यकीका नाम महेश्वर दीया, तिस महेश्वरके दो शिष्य हुये, एक नंदीश्वर, दूसरा नांदिया, तिनमें नांदीया तो विद्यासें बैलका रूप बना लेता था, और तिस ऊपर महेश्वर चढके अनेक क्रीडा कूतूहल करता था, महेश्वर श्री महाबीर भगवंतका अविरति सम्यग् दृष्टि श्रावक था, परंतु वडा भारी कामीथा, और ब्राह्मणों केसाथ उसके बडा भारी वैर हो गया था, इससे विद्याके बलसें सैकडों ब्राह्मणोंकी कुमारी कन्यायोंकों विषय सेवन करके विगाडा, और लोक तथा राजा प्रमुखकी बहु वेटियोंसें काम क्रीडा करने लगा, परंतु उसकी विद्यायोंके भयसें उसे कोई कुछ कह सक्ता नहीं था, और जो कोई मनाभी करता था सो मारा जाता था, महेश्वरनें विद्यासें एक पुष्पक नामा विमान बनाया तिसमें बैठके जहां इच्छा होती तहां जाता था, ऐसें उसका काल व्यतीत होता था, एकदा प्रस्तावें महेश्वर उज्जयन नगरमें गया तहां चंडप्रद्योतनकी एक शिवानामा राणीकों छोडके, दूसरी सर्वराणीयोंके साथ विषयभोग करा, औरभी सर्व लोकोंके बहु बेटीयोंकों बिगाडना शरू करा तव चंडप्रद्योतन राजाकों बडी चिंता हुई, अरु विचारा कि कोई एसा उपाय करीयें कि जिस्से इस महेश्वरका विनाश ( मरणां ) हो जावै । परंतु तिसकी विद्याके आगे किसीका कोई उपाय नहीं चलता था, पीछे तिस उज्जइन For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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