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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होने लगी, पीछे अतिशय ज्ञानीने कहा कि, सुज्येष्टानें विषय भोग किसीसें नहीं करा, अरुतिस विद्याधरका सर्व वृत्तांत कहातब सर्वकी शंका दूर हो गई, पीछे जब सुज्येष्टाने पुत्र जन्मा, तब तिस लडकेकों श्रावकनें अपने घरमें लेजाके पाला, तिसका नाम सत्यकी रक्खा, एकदा समय सत्यकी, साध्वीयोंके साथ श्री महाबीर भगवान्के समवसरणमें गया, तिस अवसरमें एक कालसंदी. पक नामा विद्याधर श्री महावीर स्वामीकों वंदना करके पूछनें लगा, कि मुझकों किससें भय है, तब भगवंत श्री महावीर खामीनें कहा कि यह जो सत्यकी नामा लडका है, इससे तुझकों भय है । तब कालसंदीपक सत्यकीके पास गया, अवज्ञासें कहनें लगा, कि अरे तूं मुझकों मारैगा, ऐसें कहकर जोरावरीसें सत्य, कीकों अपनें पगोंमें गेरा, तब तिसके पिता पेढालने सत्यकीका पालन करा, और अपनी सर्व विद्यायों सत्यकीकों देदई, पीछे जब सत्यकी महारोहणी विद्याका साधन करने लगा, इस सत्यकीका यह सातमा भव रोहणी विद्या साधनमें लगरहा था, रोहणी विद्यानें इस सत्यकीके जीवकों पांच भवमें तो जीवसे मार गेरा, और छठे भवमें छे महिने शेष आयुके रहनेसें, सत्यकीके जीवनें विद्याकी इच्छा न करी, परंतु इस सातमें भवमें तो तिस रोहणी विद्याको साधनेका प्रारंभ करा तिसकी विधि लिखते हैं । अनाथ मृतक मनुष्यकों चितामें जलावे, और आले चमडेकों शरीर ऊपर लपेटके पगके वामें अंगुठेसें खडा होकर जहां लग वो चिताका काष्ट जले, तहां लग जाप करे, इस For Private And Personal Use Only
SR No.020406
Book TitleJinduttasuri Charitram Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganmalji Seth
PublisherChhaganmalji Seth
Publication Year1925
Total Pages431
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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