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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक । धनं हे उरुनम्र । इन स्वामिन् । विजरामय विगतवृद्धत्वव्याधे । किमुक्कं भवति-हे अर अक्षर वामेश शमी त्वं चारुरुचानुतः भो विभो अनशन अज उरुनम्र इन विजरामय मा रक्ष ॥ ८६ ॥ __हे अरनाथ ! आप विनाशरहित हैं, इन्द्रोंके भी इन्द्र हैं, सदा शान्तरूप हैं, तीनों लोकोंके गुरु हैं, आहाररहित हैं, जरा व्याधि और जन्म रहित हैं । हे परमात्मन् बड़े २ पुरुष भी आपको नमस्कार करते हैं बड़े २ भक्तजन भी आपको प्रणाम करते हैं । हे विभो आप सबके स्वामी हैं इसलिये मेरी भी रक्षा कीजिये ॥ ८६ ।। अनुलोमप्रतिलोमश्लोकः । यमराज विनम्रन रुजोनाशन भो विभो । तनु चारुरुचामीश शमेवारक्ष माक्षर ॥ ८७॥ यमेति-यमराज व्रतस्वामिन् । यमैः राजते शोभते इति वा । विनम्राः विनमनशीलाः इनाः इन्द्रार्कादयो यस्यासौ विनम्रेनः तस्य सम्बोधनं विननेन । रजोनाशन व्याधिविनाशक । भो विभो हे स्वामिन् । तनु कुरु विस्तारय वा । चारुरुचामीश शोभनदीप्तीनां प्रभो । शमेव सुखमेव । आरक्ष पालय | मा अस्मदः इबन्तस्य रूपम् । अक्षर अविनाश । समुदायार्थ : हे अर यमराज विनम्रेन रुजोनाशन भी विभो चारुरुचामीश शोभनदीमानां प्रभो अक्षर शमेव तनु मा आरक्ष । सुखमत्यर्थं कुरु मां पालयेत्यर्थः ॥ ८७ ॥ हे विभो ! आप व्रतियोंके भी नायक हैं । इन्द्र चन्द्रादिक भी आपको नमस्कार करते हैं । आप सम्पूर्ण व्याधियोंके नाश करनेवाले हैं , अविनश्वर हैं तथा सुन्दर शोभाओंके स्वामी हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020405
Book TitleJin Shatakam Satikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Jain
PublisherSyadwad Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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