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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक । जाता है । अभिप्राय यह है कि जब केवल आपके विराजमान होनेसे ही सिंहासन परम सुशोभित हो जाता है तब आप सुशोभित होते हो इसमें आश्चर्य ही क्या है ॥ ७४ ।। मुरजः। नागसे त इनाजेय कामोद्यन्महिमार्दिने । जगत्रितयनाथाय नमो जन्मप्रमाथिने ॥ ७५ ॥ नागेति-नागसे अविद्यमानापराधाय । नञ् प्रतिरूपकोयमन्यो नकार स्ततो नो नित्यमनादेशो न भवति । ते तुभ्यम् । इन स्वामिन् । अजेय अजव्य । उद्यती चासौ महिमा च उद्यन्महिमा कामस्य स्मरस्य उद्यन्महिमा तामईयति हिंसयतीत्येवंशील: कामोद्यन्महिमार्दी तस्मै कामोद्यन्महिमादिने रागोद्रेकमाहात्म्यहिंसिने । जगत्रितयनाथाय जगतां त्रितयं जगत्त्रितयं जगत्त्रितयस्य नाथः स्वामी जगत्त्रितयनाथः तस्मै जगत्रितयनाथाय त्रिभुवनाधिपतये । नमः झि संज्ञकोयं शब्दः पूजावचनः । जन्मप्रमाथिने जन्म संसार: तत् प्रमथ्नाति विनाशयतीति जन्मप्रमाथी तस्मै जन्मग्रमाथिने जन्मविनाशिने । समुदायार्थ:- हे शान्तिनाथ इन अजेय ते तुभ्यं नमः । कथंभूताय तुभ्यं नागसे कामोद्यन्महिमादिने जगत्रितयनाथाय जन्मप्रमाथिने ॥ ७५ ।। हे स्वामिन् ! हे अजेय ! आप निष्पाप हैं, संसारमें चारों ओर फैली हुई कामदेवकी महिमाको नाश करनेवाले हैं, तीनों लोकोंके स्वामी हैं और जन्ममरणरूप संसारको नाश करनेवाले हैं । हे देव इन उपर्युक्त गुणोंके धारक शान्तिनाथ भगवान ! मैं आपकेलिये बार २ नमस्कार करता हूं ।। ७५ ।। । ... १ आगः पापं न विद्यते आगः यस्यासौ नागाः तस्मै नागसे । For Private And Personal Use Only
SR No.020405
Book TitleJin Shatakam Satikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Jain
PublisherSyadwad Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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