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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक । संभावना की जाय तो भी वह अत्यन्त प्रशसनीय ठहरता है। हे सर्वज्ञ ! आप अत्यन्त शोभायमान हैं अजेय हैं, जरारहित हैं, सदा कल्याणरूप हैं सबके इष्टस्वरूप मोक्षके स्वामी हैं । हे प्रभो ! आप उपर्युक्त अनेक गुणविशिष्ट हो, मुझे भी वह सुख दीजिये जिससे फिर कभी दुःख न हो ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ मुरजः । शोकक्षयकृदव्याधे पुष्पदन्त स्ववत्पते । लोकत्रयमिदं बोधे गोपदं तव वर्त्तते ॥३९॥ शोकेति-शोकक्षयकृत् शोकस्य क्षयः शोकक्षयः तं करोतीति शोकक्षयकृत् । अव्याधे न विद्यते व्याधिर्यस्यासावव्याधिः तस्य सम्बोधनं हे अव्याधे । पुष्पदन्त नवमतीर्थकर । स्ववत्यते आत्मवतां पते । लोकानां त्रयम् । इदं प्रत्यक्षवचनम् । बोधे केवलज्ञाने। गोपद गोष्पदम् अत्र सुपो नुन् भवति । तव ते । वर्तते प्रवर्तते । ज्ञानस्य माहात्म्य प्रदर्शितम् । गुणव्यावर्णनं हि स्तव: । किमुक्तं भवति हे पुष्पदन्त परमेश्वर तव बोधे लोकत्रयं गोष्पदं वर्तते यत: ततो भवानेव परमात्मा ॥ ३९ ॥ ___ हे भगवन् पुष्पदन्त ! आप शोकसंतापदि सम्पूर्ण दोषों को नाश करनेवाले हैं । आधिव्याधिरहित हैं । हे प्रभो ! आपके केवलज्ञानमें ये सम्पूर्ण तीनों लोक गोपदके समान जान पड़ते हैं। भावार्थ-जैसे गोपद ( कीचड़ या धूलमें चिन्हित हुआ गायका खुर) छोटा और प्रत्यक्ष प्रतिभासित होता है उसी प्रकार आपके ज्ञानमें भी ये तीनों लोक अत्यन्त For Private And Personal Use Only
SR No.020405
Book TitleJin Shatakam Satikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Jain
PublisherSyadwad Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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