SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ विज्ञापन ॥ - - - - - - - सकल भविक जनोंकों उचित है कि अपार संसार सागर सेतु श्रीभगवान् दृष्ट स्वरूप जिनेंद्रकी उपासना में निरालस्य हो के अवश्य प्रत्त होना , और वह उपासना प्रवृत्ती भागम के जानही से सुकर और सफल होती है, आगम ज्ञान भी पठन पाठन और ग्रंथों को सुलभतासे सिद्ध होता है, इस हेतु धनि क लोग पाठ शाला और मुद्रायं त्रोंमें यथाशक्ति द्रव्य व्यय करें उसको व्यर्थ न समझे ग्रंथों की सुलभता और विद्या रवि होगी यहतो प्रत्यक्ष फल है परंतु औरभीफल हैं इसमें प्रमाण श्री हेम चंद्र सूरिजी का बचन है “नते नरा दुर्गति मानुवंति नम् कांनवजडखभावं ॥ नचांधतां वुद्धिविहीनतांच ये लेखयंतीजि नस्य वाक्यं ॥ १ ॥ पठति पाठयतें पठतामसौ वसन भोजन पुस्तक वस्तुभि प्रतिदिनं कुरुते य उपग्रह स इह सर्वविदेव भवे बरः २॥ लेखयंति नरा धन्याः ये जिनागम पुस्तकं ते सर्व वाङ्म यं धात्वा सिहि यांति नसंशयः ॥ ३ ॥ ,, इनवचनों में लेखयंति इसका पर्थ यह है कि अक्षर विन्यास अर्थात् कागज पर अ क्षर की रचना, सो लेखनी सेहोय, वा मुद्रासे उसमें कुछ विशे घ नहौं, ऐसे श्रेयस्कर कार्य में प्रवृत्त नहोना यह वडी भ लहै श्री भगवान् उनके सब मनोरथ पूर्ण करै, जो बंग देशभूधरण राय धनपत सिंह बहादुर ऐसे कार्य में उत्साही होके व्यय कर रहेहैं उन्ही के सहायतासे पद रत्नावली १ जिनपूजा संग्रह २ मुद्रित किया है औरसिकाय पुस्तक मुद्रित होरहा है, ऐसे हो सकल भविक लोक प्रत होय विद्या और ग्रंथों की वृद्धि करें जिसेधर्ममुरक्षिरहै भैसी हमारी इच्छा हैं, भगवान शीघ्रपू र्ण करै ॥ इति ॥ - -- - - For Private And Personal Use Only
SR No.020404
Book TitleJin Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Gani
PublisherRushi Nankchand
Publication Year1933
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy