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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११८ ॥ विं० स्था० पू० ॥ ण सुकरणें मे० ॥ तदपि सुकोमल करण सर णनें । ठवय कठिन तप करणें मे० ॥ ३ ॥ कपट सहित तपचरणधरणतें । वांबित फल नवितरण मे० ॥ नितएदंन रहित तपपदके सुरपति गणगुण वरणें मे० ॥ ४ ॥ पीठम हापीठमुनि मल्ली जिन । पूरब जव तप सर मैं मे० ॥ रहिया तदपि कपट नवि बनो । नये स्त्रीगोत्रा चरणें मे० ॥ ५ ॥ दृढप्रहारी पांव धनकरमी । बंम्नाकरमावरणें मे० ॥ तपसे शोजलही त्रिभुवनमें। केवल कमलान रणें मे० ॥ ६ ॥ लाषइग्यारह असी हजारा | पंचसयस दिनखिरणें मे० ॥ मासखमण करि नंदन मुनिवर । पाम्यों फलशिव धरणै मे० ७ तपकरियो गुणरयण संवच्छर । खंधक नाम तादरणें मे० ॥ चनुदसहस मुनिमैं कह्यो धिकं । धनोतपाचरणें मे० ॥ ८ ॥ बहिर च्यंतरनेदें एतप । बारनेद अधिकरणें मे० ॥ वसनें कनककेतु पांम्यो पद । जिन हरषें न वतरणें मे० ॥ ९ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only (१४) ॥ काव्य ॥ लसीसरोजा वलिता वणस्स । सरूव सं
SR No.020404
Book TitleJin Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Gani
PublisherRushi Nankchand
Publication Year1933
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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