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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शांतिनाथना. ॥ ४३ ॥ www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चव्यां, संभव आठमें च्यवनहो; सुं० ॥ बारसें दोय सुव्रत व्रती, महीमोक्ष करो नमनहो; सुं० क० ॥ ७ ॥ सुं० वदि चोर्थे दोय जाणीएं, पास च्यवननें नाणहो; सुं० पांचमें च्यवन चंद्रवली, आठमें दोय कल्याणहो; सुं० क० ॥ ८ ॥ सुं० ऋषभजी जन्मनें व्रतलीएं, च्यार मुष्टी करी लोचहो; सुं०; ॥ तसपद पद्म नम्यां थकी, नविआवें भव शोचहो; सुं० क० ॥ ९ ॥ ढाल - ॥ ४ ॥ माली केरा बागमां ॥ ए देशी ॥ चैत्रशुदी चीजें सुणो, कुंथुजिन नाणरे लोल० अहो कुंथु० ॥ त्रण पांचमे नंतअजीतजी, संभव नीवणरे लोल० अहो सं० ॥ १ ॥ नवमी सुमती जिन शीव वरयां, अग्यारशें लह्यां नाणरे लोल० अहो अ० ॥ तेरसें वीरजी जन्मीयां, राता पद्म विन्नाणरे लोल० अहोरा० ॥ २ ॥ वदी पडवे कुंथु शिव लह्यां, बीजें शीतल सीद्धांरे लोल० अहोबी०॥ कुंथं दीक्षा लेइ पांचमें, नीज कारज कीधांरे लोल० अहो नी० ॥ ३ ॥ चवीया शीतल छठ दीनें, नमी शिवपद दशमेंरे लोल० अहोन० ॥ अनंत जन्म वली तेरसें, त्रण छें चउ दशमें रे लोल० ॥ | अहो ० ॥ ४ ॥ दीक्षा केवल इंणे दीने, पाम्या श्री अनंतरे लोल० अहो पा० ॥ तीमकुंथुं जीन For Pitvate And Personal Use Only पंच क० स्तवन. ॥ ४३ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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