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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शांतिनाथना. ॥ १७ ॥ www.kobahrth.org Acharya Shn Kailassagarsuri Gyanmandir | चे० ॥ ६ ॥ उंदर एकें कीधो उद्यम, करंडिओ कर कोलें ॥ मांहें घणां दिवसनो भूख्यो, नाग रह्यो दुःखें डोलें चे० ॥ ७ ॥ विवर करी मुषक तस मुखमां, दीए आपणुं देह ॥ मार्ग लही वली नाग पधारथा, कर्म वली जूओ एह ॥ ० ॥ ८॥ ढाल ॥५ पांचमी ॥ राग जन्म जरा मरणे करीए, ए संसार असार तो ॥ हवें उद्यम वादी भए, ए च्यारे असम च्छतो ॥ सकल पदारथ साधवा ए, एक उद्यम समरच्छ तो ॥ १ ॥ उद्यम करतां मानवी ए, श्युं नवि सीझें काजतो ॥ रामे रयणा यर तरी ए, लीधुं लंका राजतो ॥ २ ॥ कर्म नियत ते अनुसरें ए, जेहमां शक्ति न होयतो ॥ देंउल वाघ मुख पंखीया ए, पिउ पेसंतां जोय तो ॥३॥.... | विण उद्यम किम निकलें ए, तिल मांहेंथी तेलतो ॥ उद्यमथी उंची चढेंए, जूओ एकेंद्री वेलतो | ॥ ४ ॥ उद्यम करतां एक समेए, जो नवि सीझें काजतो ॥ तोफिरि उद्यम थी हुएए, जोनवि आवें व्याजतो ॥ ५ ॥ उद्यम करी करयां विनाए, नवि रंधाए अन्नतो ॥ आवी न पडे कोलीओ ए, मुखमां पोषें न तन्नतो ॥ ६ ॥ कर्मे पूत उद्यम पीताए' उद्यम कीधां कर्म तो ॥ उद्यम थी दूरें टलें ए, For Private And Personal Use Only पंच क० स्तवन. ॥ १७ ॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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