SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SM Mahavam A kende Acharya Sh Kailasager Gamandi शांतिना- थना. पंच क. स्तवन ॥१६॥ सु०॥९॥ रवि तातो शशी सीयलो जी, भव्यादिक बहु भाव; छे द्रव्य आप आपणा जी, न त्यजे कोइ स्वभाव सु०॥१०॥ | ढाल ॥त्रीजी॥प्रथम गोवाला तणे भवें जी ॥ ए देशी ॥काल किस्युं करे बापडोजी, वस्तु स्वभाव अकज्ज ॥ जो न होय भवितव्यताजी, तो किम सीझें काज रे, प्राणी म करो मन जंजाल॥१॥ भावि भाव निहाल रे, प्रा०॥ ए आंकणी ॥ जलधि तरें जंगल फिरें जी, कोडि यतन करे कोय॥ अण भावि होवें नहिं जी, भावि होय ते होय रे प्रा०॥२६॥ आंबे मोर वसंतमा जी, डालिं डालिं केइ लाख; केइ खरया केइ खाखटी जी, केइ आंबा केइ शाख रे प्रा०॥३॥ वाउल जिम भवि तव्यताजी, जिण जिण दिसें उजाय ॥ परवशे मन माणस तणांजी, तृण जिम पुठे धाय रे प्रा०॥४॥ नियत वसे विन चिंतव्यु जी, आवि मिलें तत्काल ॥ वरसांसोनुं चिंतव्युं जी,नियत करें विसराल रे प्रा०॥ ५॥ ब्रह्मदत्त चक्री तणां जी, नयण हणे गोवाल ॥दोय सहस जस देवता जी, देह तणां रख वाल रे, प्रा०॥६॥ कोकूओ कोयल भणे जी, किम राखीश रे प्राण ॥ आहेडी SARASEX For Pavle And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy