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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra संयमश्रेणीनुं स्तवनम् ॥१७४॥ ortor www.kobarth.org. गुण वृद्ध कंडक २५ संख्यात भाग वृद्धना कंडक १२५ असंख्यात भाग वृद्धना कंडक ६२५ अनंत भाग वृद्धना कंडक एक त्रीशसेंने पंचवीश सरवाले ३९०६ कंडक थयां ए सर्व यंत्र प्रमाणे असत्कल्पनाए लख्युंछे परमार्थ रीते आगली ढालमां कहिए छीए ॥ ७ ॥ गाथा - संयम श्रेणिमां श्रेण क्षपक लही शुक्लध्यान, घाती कर्मनो क्षय करि पाम्या पंचम ज्ञान; प्रवचन सारनी वृत्तिमां यंत्रनी ठवणा दीठ, खिमाविजय जिन वयणथी उत्तम चित्त पविठ ॥ ८ ॥ भावार्थ:-संयम श्रेणि आरोहतां अनुक्रमे क्षपक श्रेणी मांहि शुक्लध्यान पामीने घातीआं चार ४ कर्म क्षय करतां यथाख्यात चारित्र केवलज्ञान - केवलदर्शन रूप रत्नत्रयी पाम्या तद् अनुक्रमें यथा| अप्रमत्तगुणठाणे अनंतानुबंधी चार ४ दर्शनमोहनीय त्रिक त्रण ३ एवं सात प्रकृति क्षय करी अपूर्व करण | अनिवृत्ति गुणठाणे चढ्या अनिवृत्तिना प्रथम भागने अंते १६ सोल प्रकृति खपावे तेनां नाम “थावर |तिरि निरया यव, दुग थिण तिगेग विगल साहार;" बीजे भागने अंते अप्रत्याख्यानीया चार ४ प्रत्या For Pitvale And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ सहित ॥१७४॥
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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