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________________ स्तवनम् सौभाग्य दीधां ॥ भोग भोगवी तप आराधी ॥ अंते महावत लीधारे ॥ आराधो हीत.॥७॥ चरण करण पंचमी धर साधु साधवी ॥ करी अणसण संथारो ॥ वैजयंत सूर पदवी पाम्यां ॥ हवे लहेस्य भव आरोरें॥ आराधो हीत०॥ ८॥ जंबुद्वीपे पूर्ववीदेहे ॥ वीजय पुष्कला नामें ॥ पुंडरीकगीणी नगरी नामें ॥ अमरसेन तिहां नामरे ॥ आराधो हीत०॥९॥ गुणवंती तस राणी कुखें ॥ सूर भव तजी दत्त | आव्यो ॥ जनम्यो सुरसेन इंण नामें ॥ अनुक्रमें जोवन भाव्योरे ॥ आराधो हीत.॥१०॥ बार वर्षनो मात पीताए । सो कन्या परणाव्यो । अमरसेंन तस राज्य देइनें । परलोकें सीधाव्योरे॥ आराधो हीत० ॥ ११॥ अन्य दिवस श्रीमंधर स्वामि ॥ पोहता तिहां विचरंता ॥ वनपाले जई| राय वधाव्यां ॥ समवसख्या अरीहंतारे ॥ आराधो हीत०॥ १२॥ सुरसेन जइ जिनने वांदी॥ सुणी धर्मनी वाणी ॥ जिन कहे पंचमी तप करज्यो । वरदत्त परे भवी प्राणीरे ॥ आराधो हीत. Au१३ ॥ तव पुछे प्रभु कुण ते वरदत्त ॥ जिन तव सकल प्रकासे ॥ ज्ञान पंचमी महीमा सुणता ॥ भवीजन मन उल्लासेरें॥ आराधो हीत.॥१४॥ लोक घणां उचरें जिन मुखथी ॥ ज्ञान पंचमी For Pavle And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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