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________________ Sahankan Acharya Sh Kaisagersuri Syamandie शांतिना-अग्रमहीषीयो इंद्रनीजी रे, लोकपाला दिक साररेजी रे ॥ सपरिवारें शोभतारे जीरे, जिनगुण गीतपंचक. थना. संभाररजी रे, ॥ पद०॥३॥जिहां भगवंतनुं शरीरछेजी रे, तिहां आवे सुरजातरेजी रे ॥ प्रदक्षिणा स्तवन. नमनादि केंजी रे, करतां आंशु पातरेजी रे ॥ पद०॥ ४॥ करजोडि करे सेवनाजी रे, सोहम जाणो ए धूररेजी रे ॥ इशान पण इणि परेंजी रे, ढलकतां आंशु पूररेजी रे॥ पद०॥५॥ मनमें दुःख मायेनहींजी रे, सोहम आज्ञा जेमरेजी रे ॥ तदनंतर भवण वइजी रे, व्यंतर जोसी तेमरेजी रे ॥पद॥६॥वैमानिक सहदेव ताजी रे, नंदनवन मन भावरेजी रे॥गोशीर्ष चंदनादि केजी रे, चयने कारणे लावरेजी रे॥ पद० ॥ ७॥ तिर्थंकर गणधर निजिरे, शेषकरे अणगार रेजी रे॥चयतेत्रण करतां थकां रेजी रे, आणि दुःख अपाररेजी रे ॥ पद० ॥ ८॥ आज्ञाकारि देवता कन्हेंजीरे॥ रषीरनुं नीर आणावरेजी रे ॥ सोहमनीर जिनजी तनुं रेजी रे, स्नान मजन करावरेजी रे॥पद०॥ ॥ ९॥ बावन्ना चंदन लेपतांजी रे, प्रभु भूषण पहेरावरेजी रे ॥ गणधरने अन्य देवताजी रे, मुनी ॥११॥ अलंकार धरावरेजी रे॥ पद०॥१०॥ चित्रामण त्रण शीबिका जीरे, चित्रीत छे अभिराम रेजी रे॥ For Private And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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