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________________ RECA शांति नाथ श्रीचतुदेश गुणस्थान स्तवनम् ॥१३३॥ %AFCCCCCC बोलि निठुर वचन उल्लासरे, रुद्र भाव आलस दिशा, होय एहथी समकित नाशरे, धन धन०॥३९॥ शंका कंखा वितिगिच्छा, करे अन्य दरशणनी सेवरे; वली प्रशंसा मिथ्यात्वनी, ए अतिचार टालो नित्य मेवरे; धन धन०॥ ४०॥ देव गुरु श्री संघनी, भक्ति करि दृढ चित्तरे; जिनशासन उन्नति करी, इम समकित अजुआले नीत्यरे; धन धन० ॥४१॥ आयु देव मनुष्यनु, तीर्थकर गोत्रज साररे; ए त्रय प्रकृति मांहि भेलता, बांधि सत्तोत्तेर निरधार रे, धन धन०॥ ४२ ॥ उदय प्रकृति एकसो च्यारनी, जघन्य स्थिति अंतरमुहूर्त दिशरे; उत्कृष्टी स्थिति वली एहनी, साधिक सागर तेत्रीशरे; धन धन०॥ ४३ ॥ आत्मीक सुख जिहां अनुभवी, रहि जगतशुं उदासरे; भाषे नही मुखे दीनता, करे निशिदिन ज्ञान अभ्यासरे; धन धन० ॥ ४४ ॥ ढाल-g-थी॥ ओषारणनी॥धन साधु मृगासुत दिसि.॥ए देशी॥ एणिविधि समकित पामे प्राणी, इम बोले श्री केवलनाणी; केईक सहज स्वभावे जागी, कोइक गुरु वचने लागि॥एणिविधि R EERENCEREA4 ॥१३३॥ For Pavle And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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