SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SM Mahavam A kende www.kobatirth.org Acham Ka B andit क० थना. स्तवन. शांतिना आतम संवर लुद्ध ॥ भ० ॥३॥ मेह कुमार मनोहार थी रे, वृष्टी करे नीरधार रे; चंदन का वासीयोते रे, रज समावे उदार भ०॥४॥ अग्नी कायनां देवता रे, उखेवे धूप रसाल रे; वाण व्यंतर ॥७॥दरचे पीठिका रे, मणी रयण वीशाल भ०॥५॥ पंच वरण पीठिका परें रे, भरतां जानु प्रमाण रे। उद्वे बिट रचना रचे रे, वाण व्यंतर गुण खाण ॥ भ०॥ ६॥ आवि सुरवर वंदिया रे, भक्ति भाव उल्ल संत; समवसरण लव लेश ऋद्धि रे, पभणुं नीसुणो संत ॥ भ०॥ ७॥ जीनजी जब नाण पामीयां रे, आवे चोसठ इंद रे; समवसरण मलीने रचे रे, पामें अति आणंद ॥ भ० ॥८॥ भवणवइ हवे देवता रे, रजत तणो रचे सार रे; कोसीसा हेमना कह्यां रे, सोभ तुं वृत्ताकार ॥ भ० ॥ ९॥ रवि शशी ग्रह सूर जोशीया रे, गढ बीजुं रचे हेम रे; कोसीसा रयण ना कह्यां रे, आगम मांछे जेम ॥ भ०॥ १०॥ त्रीजुं गढ रयण नुं रचे रे, वैमानिक उत्तंग रे; मणी कोसीसा |विराज तां रे, लागत मनशुं चंग ॥ भ०॥ ११॥ उचि, गढनी भिंति सवे रे, धनुष्य पंच प्रमाण | रे विस्तार पण तेत्रीश धनुं रे, दुतीस अंगुल जाण भ०॥ १२ ॥ गढ गढ़े थी अंतर भुइं रे, ते CORRECERCAX SSSSSSS ॥ ७ ॥ For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy