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________________ ShriMahavirain AartmenaKendra www.kobateh.org. Achan Ka Beramendi शांतिना- थनां. हवे उपसर्गादि अधिकार कहे छे ॥ दूहा ॥ सिंह समो दुर्द्धर थइ, करतां कर्म विदुर; मोह - पंच क० महामद दुर भयो, वहियो आणंदपूर ॥१॥ पंच संवर मनमें धरी, पंचाश्रव करें त्याग; परिसह । स्तवन वर्गनें थोभतो, धरतो धरम सराग ॥ २ ॥ ढाल ॥ राग काफी ॥ सामली सुरत पर मेरो मन अटक्यो । ए देशी ॥ सयण संबंधीने पूछी प्रभुजी, विचरे महीयलमांही जी; चक्रायुध नृप आंशु झरतां, नयणे निरखे त्यांहिं जी ॥१॥ पंचमो चक्री सोलमो साहेब, करमनो करे वीनाश जी॥ ॥ पं०॥ आंकणी॥ अण दीठे नृप पाछा वलीया, धरतां मन अति खेदें जी;बावन्ना चंदन चरचीत ए ! अंगे, षट् पद शरीरने वेदे जी ॥ पं० ॥ २॥ स्त्रीयो पण भोगी कुंअर जाणि करें, अनुलोमा उपसर्गे जी; तप मुद्गरे तस दुर विदारी, लेवा सुख अपवर्गे जी ॥ पं०॥३॥ पारणुं प्रथम करावे पयर्नु, मंदीरपुर जिनराय जी; सुमित्र रायें सुपात्रे दीधुं, पंच दिव्य प्रगट सोहाय जी ॥५०॥४॥ अनुकुल देव मनुष्यनो जाणो, वलि तिर्यंचनां कीधां जी; उपसर्गनां वर्गथी निकली, शांति स- ॥५ धारस पीधां जी ॥ पं०॥ ५॥ पण सुमति वली तीन गुप्ती जे, क्रोधमान माय त्यागी जी, अलोभी Ke For Pale And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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