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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendr श. १३ www.kobarth.org. गंठसीने एकत्र; नीवी आंबिल; भांगे आलोयण इमे ए; एक पांच षट् आठ, नवकार वालीय; गुणे नवकार अनुक्रमे ए ॥ १६ ॥ उपवास भंग उपवास, आंबिल उपरांत; अधिको दंडवखाणिये ए; पांचम आठम आदि, भंग कीया वली; फिर ग्रहि पातक हणीये ए ॥१७॥ उषलि मूसली आग, चूलो घरंटी ए; दीधे अट्टम तप करे ए; मांगी सूइ दीघ, कातरणी छुरी; आंबिल चढतां आदरे ए ॥ १८ ॥ रात्री भोजन किधरे, तिम आरंभीया; जल तरणो खेलण जूओ ए; पाप तणो उपदेश, परद्रोह चींतव्या; उपवास एक एक जूजूओ ए ॥ १९ ॥ पन्नर कर्मादान, नीयम करी भंग; मद मांस मांखण भक्ष्या ए आलोयण उपवास, संकप्पादिक; चिहुं भेदे चढता सिख्याए ॥ २० ॥ बोल्या मृषावाद, अदत्ता | दानश्युं; जघन्य एकासण जाणीये ए; अति उत्कृष्टी एण, जाणि आलोयण; उपवास दश आणीये ए ॥२१॥ ढाल ॥ ४ ॥ गुण सनेहि मेरेलाल ॥ ए देशी ॥ चोथेनत भागे अतीचार, जघन्य छह आ. लोयण धार; मध्ये दश उपवास विचार, उत्कृष्टा गुण लख नवकार ॥ २२ ॥ परिग्रह विरमण दोष प्रसंग, तीन गुणत्रत मांहे भंग; च्यार शिक्षा व्रतने अत्तीचारे, आंबिल त्रण प्रत्येके धारे ॥ २३ ॥ शील For Pivate And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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