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________________ शांतिना-द दृष्टी मीस आकर्षी, समकित मांहि हर्षीरे; ध० संक्रमावे मिथ्यादृष्टी, मिथ्यामां गुण पुष्टीरे; ध०॥१२॥ पंच क. थना. समकित पुद्गल मिथ्यामांहें, पण मीश्रे नवि चाहेरे; ध० ॥ मिच्छाखीण नही छे जेहनें, ते त्रण स्तवन. पुंजछे तेहनेरे; ध०॥ १३ ॥ मिच्छाखीण थये दोय पूंजी, मीस खये एक पुंजीरे; ध०॥क्षावकारी समकित पुद्गल नाशें, जिन आगम इम भाषेरे; ध०॥ १४ ॥ शोधित मयण कोद्रवा थाने, समकित पुद्गल मानेरें; ध० ॥ तेहनें विरुद्ध तैलादिक पाशे, शुद्धपणुं तस नाशेरे; ध० ॥ १५ ॥ तिमज कुशास्त्र कुतीर्थ कुसंगे, तस किरिया मन रंगेरै; ध०॥ मिथ्या मिश्रित समकीत जाये, तत्क्षण मिथ्या थायरे, ध०॥ १६ ॥ समकितथी पडिओं जो पाछं, वली समकित लहे आछरे; ध०॥ ते त्रण पुंज करे तिहां फेरी, मिच्छ अपूर्वे वेरीरे; ध० ॥ १७ ॥ अनिवृत्ति करण बलें ते रसीओ, समकित पुंजे, वसीओरे; ध०॥ समकित परिजिहां विरतिने पावें, आद्य करण बे आवेरे; ध०॥ करण अपूर्व कालने द आगे, विरति लही तिहां जागेरे; ध०॥ १८॥ अंतर महतमां तस लाधे, निज परिणामे बांधेरेः ॥४८॥ ध०॥ उंचो नियम नहिं तिहां कोई, वृद्धि हाणी सम होयरे; ध० ॥ १९ ॥ अनाभोग परिणामनी + USEUROSAMACROSAX For And Personal use only
SR No.020395
Book TitleJain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Rupchand Zaveri
PublisherMotichand Rupchand Zaveri
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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