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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - अपनी बात काव्य, संगीत और कला जैसे ललित विषय जहां सर्वसाधारण की रुचि व मनोरंजन के माध्यम बनते हैं, वहाँ दर्शन एवं न्यायशास्त्र जैसे जटिल विषय विद्वानों की बौद्धिक क्रीड़ा, वाक् चातुर्य एवं जय-पराजय का मापदण्ड बन जाते हैं, इसलिए अधिकांश मनीषी दर्शन एवं न्याय जैसे दुरूह् विषयों में कम ही रुचि लेते हैं और इन्हें एक सिर खपाऊ विषय मान बैठते हैं । किन्तु, सैलानी को जो आनन्द पहाड़ों की ऊबड़-खाबड़ ऊंची चढ़ाई में आता है, वह मैदान की सपाट दौड़ में नहीं मिलता । इसी प्रकार दर्शन एवं न्याय के रसिक पाठक को जो आनन्द इन जटिल विषयों की तर्कवितर्कणा में आता है, वह कुछ अनूठा ही होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुछ विद्वान ऐसे भी हैं, जिनकी काव्य एवं संगीत की भाँति दर्शन एवं न्यायशास्त्र में भी समान गति, समान रुचि होती है । वैसे बौद्धिक व्यक्ति के लिये ये दोनों ही शास्त्र उबाऊ नहीं किन्तु दिलचस्प हो होते हैं । वर्तमान में दर्शन एवं न्यायशास्त्र का अध्ययन काफी कम हो रहा है, इसके अनेक कारण हैं, उनमें एक प्रमुख कारण है, इन विषयों के ग्रंथों की राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुपलब्धि | दर्शनशास्त्र पर तो फिर भी अनेक अच्छे ग्रन्थ हिन्दी भाषा में उपलब्ध है, किन्तु न्याय-ग्रन्थों का तो अभी भी बहुत अभाव है ! अधिकतर न्याय ग्रन्थ संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में ही हैं । और आज संस्कृत - प्राकृत भाषा का पठन-पाठन बहुत कम हो गया है, इसलिये ग्रन्थों के अभाव एवं भाषा ज्ञान की पर्याप्त कमी के कारण इन विषयों में रुचि रखते हुए भी अनेक विज्ञ पाठकों को न्याय रसास्वाद से वंचित ही रहना पड़ता है । (%) For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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