SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय दर्शन में न्याय-विद्या | आचार्य हैं- भद्रबाह, संघदासगणि, जिनदास महत्तर, शीलांक एवं मलयगिरि आदि । दर्शन-युग वाचक उमास्वाति से प्रारम्भ होता है। उन्होंने पद्रव्य, पञ्च अस्तिकाय, सप्त तत्त्व और नव पदार्थों का नुतन शैली से प्रतिपादन किया था। इस युग के प्रसिद्ध आचार्य हैं--वाचक उमास्बाति, आचार्य कुन्दकुन्द और नेमिचंद्र सूरि । अनेकान्त व्यवस्था युग, जैन साहित्य के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं चिरस्मरणीय है। क्योंकि बौद्धों का शुन्यवाद तथा विज्ञानवाद, वेदान्त का अद्वैतवाद तथा मायावाद, सांख्य का प्रकृतिवाद, मीमांसा का अपौरुषेयवाद और न्याय-वैशेषिक का आरम्भ एवं परमाणवाद परस्पर द्वन्द्व युद्ध कर रहे थे। उसे मिटाने के लिए अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वाद की युगानुकूल व्याख्या आवश्यक थी। इस कार्य को किया-आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने तथा आचार्य समन्तभद्र ने । सिद्धसेन का सन्मति तर्क और समन्तभद्र को आप्त-मीमांसा-इस द्वन्द्वात्मक युग के प्रतिनिधि ग्रन्थ माने जाते हैं। प्रमाण युग अथवा तर्क युग इस युग में प्रमेय की नहीं, प्रमाण को चर्चा अधिक गम्भीर एवं व्यापक हो चुकी थी। नैयायिक और बौद्ध परस्पर घात-प्रतिघात कर रहे थे । एक दूसरे पर आरोप कर रहे थे। एक दूसरे का खण्डन कर रहे थे। जैन दार्शनिक कब तक तटस्थ रहते ? उन्हें अपने सिद्धान्तों की रक्षा करते हुए, नैयायिक और बौद्धों का खण्डन भी करना पड़ा। इस युग के प्रसिद्ध आचार्य थे- सिद्धसेन दिवाकर, वादिदेव सरि, आचार्य हेमचन्द्र तथा उपाध्याय यशोविजय, अकलंक भट्ट, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र और धर्मभूषण आदि । जैन न्याय के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-न्यायावतार, प्रमाण-नयतत्त्वालंकार, प्रमाण मीमांसा, तथा जैन तर्क भाषा, और न्याय विनिश्चय, परीक्षा-मुख, प्रमेयकमल मार्तण्ड तथा न्याय दीपिका आदि । जैन ताकिकों ने प्रमाण के दो भेद किये हैं--प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद-सांव्यवहारिक और पारमार्थिक । पहले के छह भेद और दूसरे के दो भेद-सकल एवं विकल । परोक्ष के पाँच भेद हैं -स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । प्रमाण विभाजन की जैनाचार्यों की यह अपनी मौलिक सूझ-बूझ है। प्रमाण के विषय में आगे विशेष लिखा जायेगा। यहां संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। सांख्य-योग सम्प्रदाय वैदिक दर्शन के षट्-सम्प्रदाय माने जाते हैं-सांख्य-योग, न्याय For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy