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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निक्षेप सिद्धान्त | १३७ २. मूल अर्थ से शून्य वस्तु को उसी के अभिप्राय से स्थापित करने को स्थापना निक्षेप कहा है । ३. भूत और भावी अवस्था के कारण तथा अनुपयोग को द्रव्य निक्षेप कहते हैं । द्रव्य निक्षेप के दो भेद, आगम में इस प्रकार हैं-२. नो आगमतः १. आगमतः आगमतः द्रव्य निक्षेप - जीव आदि पदार्थों का ज्ञाता, किन्तु वर्तमान में उपयोग शून्य | आगमतः का अर्थ है - ज्ञान की अपेक्षा से । नो आगमतः द्रव्य निक्षेप - इसके तीन भेद हैं- ज्ञ- शरीर अर्थात् जानने वाले का शरीर भव्य शरीर और तद्व्यतिरिक्त । नो आगमतः का अभिप्राय है- ज्ञान के सर्वथा अभाव और देश अभाव - दोनों का सूचक है । ज्ञ शरीर और भव्य शरीर में, ज्ञान का सर्वथा अभाव है तथा अनुपयुक्त अवस्था में की जाने वाली क्रिया में, ज्ञान का देशतः अभाव है । जहाँ ज्ञ शरीर और भव्य शरीर के पूर्वोक्त लक्षण घटित नहीं होते, वहाँ तद्व्यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप है । ४. विवक्षित क्रिया में परिणत वस्तु को भावनिक्ष ेप कहा जाता है । उसके दो भेद हैं १. आगमतः २. नो आगमतः उपाध्याय के अर्थ को जानने वाले तथा उस अनुभव में, परिणत व्यक्ति को आगमतः भाव उपाध्याय कहा जाता है । उपाध्याय के अर्थ को जानने वाले तथा अध्यापन क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति को नो आगमतः भाव उपाध्याय कहा जाता है । निक्षेपों के परिज्ञान के बिना आगम के अर्थों को वास्तविक रूप में नहीं समझा जा सकता है । अतः प्रमाण और नयों की भाँति ही निक्षेपों का परिज्ञान परम आवश्यक है । सन्मति तर्क में निक्षेप सन्मति तर्क प्रकरण अथवा सन्मति सूत्र शासन प्रभावक ग्रन्थ माना जाता है | श्वेताम्बर परम्परा के महान् आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की यह एक अमर कृति । दूसरी कृति है, उनकी न्यायावतार-सूत्र । दोनों की रचना पद्य में की है | सन्मति सूत्र में मुख्य विषय नय और अनेकान्त का है । न्यायावतार सूत्र में प्रमाण और जय का प्रतिपादन किया गया है । For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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