SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन है, जितना कि दर्शन । दर्शन समस्त मानव जाति की सामान्य सम्पत्ति है। किसी एक देश अथवा एक जाति की सम्पत्ति नहीं है। लेकिन यह सत्य है, कि मानव की विभिन्न देशगत, समाजगत, मानसिक तथा राजनैतिक परिस्थितियों के कारण विभिन्न देशों में, दर्शनशास्त्र का आकार-प्रकार और स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार से विकसित होता रहा है । अतः भारतीय दर्शन, यूनानी दर्शन एवं यूरोपीय दर्शन जैसे नाम प्रचलित हो गए हैं। दर्शन और तर्क : दर्शन और तर्क दोनों भिन्न हैं, लेकिन आज दोनों पर्यायवाचक जैसे प्रतीत होते हैं । दर्शन का स्थान तर्क ग्रहण करता जा रहा है । दर्शन परम सत्य अथवा परम तत्त्व को देखने एवं प्राप्त करने का उपाय, मार्ग अथवा दृष्टिकोण है । विशुद्ध विचार का नाम दर्शन है, परन्तु विचार-स्वर्ण की परीक्षा तो तर्क की अग्नि में होती है । तर्क की कसौटी में निखरा विचार विशुद्ध होता है । विचार में दोष-आग्रह, मोह, पक्षपात, बुद्धि की मलिनता और दृष्टि के संकोच के कारण आते हैं। तर्क इन दोषों का निराकरण करके विचार को शुद्ध बनाता है और बुद्धि को निर्मल करता है। अतः तर्क को दर्शन का अनिवार्य एवं अविभाज्य अंग माना गया है। कहा गया हैमोहं रुणद्धि विमलीकुरुते च बुद्धि, सूते च संस्कृत-पद-व्यवहार-शक्तिम् । शास्त्रान्तरभ्यसन योग्यतया युक्ति; ___ तर्क-श्रमो न तनुते किमिहोपकारम् ॥ तर्कशास्त्र में किया गया श्रम, व्यक्ति के व्यक्तित्व-विकास का पथ प्रशस्त करता है । व्यामोह को दूर करता है । बुद्धि को विमल बनाता है। परस्पर के व्यवहार की योग्यता को बढ़ाता है। प्रत्येक शास्त्र के अध्ययन की क्षमता प्रदान करता है। तर्क का उपयोग भारतीय दर्शन में, तर्कशास्त्र को हेतु-विद्या, हेतु-शास्त्र, प्रमाणशास्त्र और न्यायशास्त्र कहा गया है । तर्क का उपयोग मुख्यतया तीन प्रयोजनों के लिए किया जाता है जैसे कि (क) अपने सिद्धान्त की स्थापना के लिए और अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए। For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy