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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नय-निरूपणा | १०६ आचार्य ने द्रव्याथिक नय के तीन भेद माने हैं-नगम नय, संग्रह नय और व्यवहार नय । प्राचीन परम्परा भी यहो रही है। ___ आचार्य वादिदेव सूरि, आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के उत्तरकाल भावी हैं, फिर भी उन्होंने दिवाकर के षड्भेदवाद को स्वीकार न करके सात भेदवादी प्राचीन आगम परम्परा को ही स्वीकार किया है। आगमों में, तत्वार्थ सूत्र में और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणवृत विशेषावश्यक भाष्य में सप्त नयवाद को ही माना है । इन सभी ने नेगम नय को स्वतन्त्र नय माना है । षड्नयवाद के जन्मदाता स्वयं आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ही माने जाते हैं। नैगम नय जिग विचार के अनुसार दो धर्मों की, दो धर्मियों की तथा धर्म और धर्मी की गौण-मुख्य भाव से विवक्षा की जाती है, तथा इस प्रकार अनेक मार्गों से वस्तु का परिज्ञान कराने वाला नैगम नय कहा गया है । इस लक्षण में तीन अंश हैं-धर्म, धर्मी और उभय धर्म-धर्मी । दो धर्मों में से किसी एक धर्म की प्रधानता, दूसरे की गौणता होगी। दो धर्मियों में से एक की प्रधानता दूसरे की गौणता होगी। धर्म और धर्मी में से किसी एक की प्रधानता, दूसरे की गौणता होगी । जैसे कि १. आत्मा में, सत् चैतन्य है। यहाँ पर आत्मा में दो धर्म हैं----सत और चैतन्य । सत्वयुक्त चैतन्य कहने से सत् गौण हो गया और चैतन्य मुख्य हो गया । यह नैगम नय हो गया। २. पर्याय वाला द्रव्य वस्तु है। यहाँ दो धर्मी हैं-~-वस्तु और द्रव्य । पर्यायवत् द्रव्य गौण है, और वस्तु प्रधान हो गया। यह भी नैगम नय है। ३. विषयों में आसक्त जीव क्षण भर को ही सुखी होता है। फिर दुःख ही दुःख है। यहाँ पर जीव धर्मी है, और क्षग सुख धर्म है। जीव मुख्य है और सुख गौण है । यह भी नैगम नय है। ___ जहाँ पर दो धर्मों में से एक धर्म की मुख्य रूप से विवक्षा करना और दूसरे धर्म की गौण रूप से विवक्षा करना, वहाँ नंगम नय होता है। दो द्रव्यों में से एक की मुख्य, और दूसरे की गौण रूप से विवक्षा करना, तथा धर्म एवं धर्मी में से एक की मुख्य रूप में और दूसरे की गौण रूप में विवक्षा करना, वहाँ नैगम नय होता है । यह नय अनेक मार्गों से वस्तु का परिज्ञान करता है। अतः न एक गम, नैगम कहा जाता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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