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________________ - - कुमतोच्छदन भास्कर // [27] होती है तिसको बुद्धि पूर्वक विचार करना चाहिये कि जो दातार अर्थात् देने वाला पृथ्वी पानी आदिक जीवों के विराधना अर्थात् संघटा करले तो देने वाला असूजता होजाता है फिर उसके हाथ से साधु आहार आदिक नहीं लेतो खुले मुख बोलके मुनि को दान देवे तो दातार असूजता क्यों नहीं होय सोतो नहीं होता क्योंकि उघाड़े मुख बोलनेवाले के हाथसे भी साधु आहार लेते हैं कदाचित्त कोई हटवादी ऐसा कहे कि हम नहीं लेते यह बात कहना उसका असंभव है क्योंकि देखो एक हाथ में तो बरतन है और दूसरे हाथसे बहराता है अथवा दोनों ही हाथोंसे कोई चीज बहराता है और दूसरी चीज की निमंत्रणा करता है इसलिये यह जो तुम कहतेहो खुले मुख बोलनेसे वायुकाय की हिंसा होती है यह कहना ठीक नहीं जो उघाडा मुख बोलनेसे वायुकाय की हिंसा होती तो जिसे फंकमारकर आहार साधु को लेना मना किया वैसेही खले मुख बोलने वाले के हाथ से आहारादि लेना मना करते इस बातको बुद्धि पूर्वक देखो मिथ्यात को क्यों पेखो दूसरे देखो इसी रीतिसे श्रीदसर्वकालक अध्येन 8 में वायुकाय की हिंसाके वास्ते पाठ लिखा है सो भी दिखाते हैं पाठः टालियंटेणपत्तेणं साहाविहुणेणवा नवीएज्ज अप्पणो कार्य वाहिरंवाविपुग्गलं॥ ___ अर्थः-बीजना अर्थात् पंखा अथवा पत्र अथवा वृक्षकी शाखा अर्थात डाली करके ना बायरो करे अपनी काया अर्थात् शरीर को अथवा ऊना पाणी तथा दुध ऊपरकी लिखी बातोंसे ठंडा करके नहीं पीवे इस रीतिस वायकाय की दया अर्थात् हिंसा में श्रीवीतराग देव मने किया परंतु खुले मुख बोलनेसे तो वायुकाय की हिंसा कहीं नहीं तो फेर तुम्हारा कहना कोंकर बनेगा कि खुले मुख बोलने में वायकाय की हिंसा होती है इसलिये हे / - - - -
SR No.020393
Book TitleJain Ling Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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