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________________ [1] जैन लिंग निर्णय // छोड़ना सत्य को ग्रहण काना और सूत्र किसकी जबान से सुनना और किससे न सुनना कौन सच्चा अर्थ कहता है कौन झूठा अर्थ कहता है इत्यादि बातों का तो कुछ ख्याल है नहीं केवल अपनी पकडी हुई पंछडी में लिपटकर विवाद करते हैं उन पुरुषों को कदापि संशय न उत्पन्न होगा इसलिये उनके वास्ते यह ग्रंथ भी उपकारी न होगा इसलिये अब जो कोई भव्यजीव आत्मार्थी दृष्टि राग मिमत मत पक्षको छोड़ कर शास्त्रानुसार निश्चय करके श्रीवीतराग सर्वज्ञ देव के धर्म को अंगीकार करें जिससे संसार समुद्र से तरै फिर जन्म मरण भी न करै सत्य उपदेश को हृदय में धरे जालियों की जालमें न पड़े इस वास्ते हमारा कहना है कि जैसा इम उत्तराध्येनजी के तेईसवें अध्येन में जो जिन धर्म की एकता और एक लिंग अर्थात् भेष निश्चय हुआ वैसाही इस जगह आत्माअर्थी निश्चय करके अंगीकार करे अब इस जगह मुंहपत्ती बांधने वाले कहते हैं कि मुंहपत्ती तो हमेशा से बांधते हैं तो यह बात कोई नवीन थोड़ी है // उत्तर // भोदेवानु प्रिय जो तुम कहते हो कि हमेशा से बांधते हैं यह तुम्हारा कहना अनपमझ और कदाग्रह रूप मष वादहै क्योंकि देखो जो साधुओं का हमेशा से मुख बंधा होता तो दांत होट आदि किसी को देखने में नहीं आते जब दांत आदि देखने में न आवेगा तो फिर उन दांत आदिक को बुरा भला कौन कह सकता है इसलिये देखो हम तुमको दिखाते है कि अगाडी के साधुओं का मुंह खुला हुवा था उत्तराध्येनजी के 12 में अध्येन में 6 ठी गाथा देखो // कयरेआगछई दित्तस्बे कालेविगराले फोक्कनासे उमञ्चल एपंसुपिसायभूए संकर दूसंपरीहरीयकंटे // अर्थ-हरि केशीमुनि जज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के पास में गया उम वक्तमें जो बाह्मणों ने निंदाकारी बचन बोला सोही दिखाते हैं कि | अरे यह कौन आता है अत्यन्त कुरूप अर्थात् भंडा है रूप जिसका - - -
SR No.020393
Book TitleJain Ling Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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