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________________ [12] जैन लिंग निर्णय // णमछयं३१पच्चयथ्थवलोयरहनाणविहविगप्पणांजतथ्थगहण ध्यंच लोगेलिंगप ओपणं 32 सहभवेपइन्नाउ मोक्षसभुय. साहणेनाणं व सणंचव चरित चवनिथ्थए 33 साहुगोयम पन्नाते // 34 // अर्थ- अचेन्त कहता मानोपेत मफेद वस्त्र जीर्ण अभिप्राय ऐसा श्री बईमान स्वामीने कहा अर्थात् उपदेश दिया और इस अचेल धर्म को श्री पार्श्वनाथ स्वामीने पांच वरन के मानोपेत रहित अर्थात् प्रमाणनहीं एसा उपदेश दिया और मोक्ष पहुंचाना अथवा उपार्जन करना ये एक सरीखा कार्य पडिवज्जा अर्थात् उपदेश दिया तो फिर आचारमें फरक क्यों पड़ा इसका कारण क्या हुवा इस रीतिका बिचार उत्पन्न हुवा क्योंकि यती अर्थात् साधुका लिंग दो प्रकार का होनेसे मे कहे पुद्धिवंत किसवारते अविश्वास तुम्हारेको उत्पन्न न हुवा ऐसा श्रीकेशीकुमार बोले तिस पीछे श्रीगोतमस्वामी आगे दिखांत हैं सो कहते हुवे कि विशेष ज्ञान जोके बल ज्ञान तिस ज्ञान करके सम्यक प्रकारे सच्च प्रकारसे जान करके तिथंकरदेव धर्म साधन के वास्ते उपगरण वस्त्र आदिक रखने की आज्ञा दीनी है क्योंकि यती का भेष तिससे मालूम पडे कि यह जती है इस प्रतीति के अर्थ लोगों के विषय संजम मात्र के निवने के अर्थ वस्त्र आदिक उपगरण रखने की आज्ञा तिर्थकरदेव साधू को दीनी है शान के अर्थ वरुणादिक उपगरण रखना जिससे यती का भेष होय तो ऐमा ज्ञान आवे और यती का भेष मुजिब भेप होयतो लोग प्रतीति को नहींतो लोगों को अनाचरण मालग पड़े इसलिये यथावत लिंग धारन करना चाहिये जिससे लोग साधू और पज्य जाने क्योंकि प्रतीत होय वोही यती का भेष होय तब लिंग ऐसा जाने कि जैसा तिर्थंकरों ने यती का आचार कहा है उसी मजिब में रक्खं तो खरा और मोक्ष का सद्भुत अर्थात् सच्चा साधन तो ज्ञान, दर्शन, और चारित्र निश्चय नय
SR No.020393
Book TitleJain Ling Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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