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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir G4 Prvy विजयंत राजानु जैनी थ. एबा तेशलेश्वर शासमा यहाहसीय श्रीसर्वदेवसरि चलनास राहता, तथालाई निमामा पारंगानी महाअतिशत हता. एक सोते आचार्य भाग बहार स्थंडिल गया हता, तेवदते ते विजयत राजा पण शिकारमाटे से भागे अतो हतो, तेने के आचार्य सन्मुख मळया. ते मिथ्यात्वी राजा अपका मानी आचार्यने मारवामाटे पोतानो हाथ उचो कर्यो, परंतु गुरुमहाराजना अतिशयथी तेलो ते हाथ मज उंचो रही गयो, आने सेना शारीदमा तेथीगणी वेदना थवा लागी. त्यारे राजाए जाणु आकोइ महाचमत्कारी पुरुष छे, एम विचारी ते बोलाउपरथी नीचे उत्तरी गु. रुना चरणाला घडी विनति करवा लाग्यो के, हे भगवन् ! आप मादा अपरावनी क्षमा करो? अज्ञानताने लीधे में आपनो अविनय का , एवो रीते क्षमा मागवाथी तेलो हाथ पाडो यथास्थित थाइ गयो, तथा शरीरनी वेदना पण दूर थइ. पछी ते विजयंत राजाए धर्मसंबंधि हकीकत पूछवाथी आचार्यश्रीए तेने दयामूल जैनधर्मनो उपदेश कर्यो अने तेथी ते विजयंत राजाए For Private And Personal Use Only
SR No.020388
Book TitleJain Gotra Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1923
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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