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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४) अन्वयार्थ-(धर्मधुराधिकारे) धर्म है अग्रसर जिसके ऐसे अधिकार में उसके ( धनेन) धन कर के (किं) क्या (वा) अथवा (स्वजनेन) परिवार कर के 'क्या । (च) और (कामगुणैः) कामभोगों कर के ( एव) ही ' क्या ' (गुणौ. घधारिणौ) गुण समूहको धारण करने वाले (श्रमणौ ) साधु (भविष्याव:) होंगे (भिक्षाम् ) भिक्षाको ( अभिगम्य ) 'निर्दोष , जानकर (बहिर्विहारौ) 'ग्राम से , बहार गमन करेंगें ।। १७ ।। हे पिता श्री ! जिप के हृदय में धर्म प्रविष्ट कर गया है, उसे न धन, न स्वजन , न काम भोगों की ही श्रावश्य कता है और न वह उनकी प्राप्ति के लिये इच्छा करता है। इसी प्रकार हमको भी जो श्राप कह रहे हैं उन में से किसी भी बातकी आवश्यकता नहीं हैं। हाँ, जिसे चाह रहे हैं उसी लिये शान्त, दान्त गुणों को धारण कर अप्रतिबद्ध पक्षिक जैसे भूमण्डल में विचरेंगे । और निर्दोष श्राहार पानी को जान कर उसे भिक्षा रूप में ग्रहण करते हुये संयम का निर्वाह करेंगे ॥ १७॥ मूल-जहा य अरगी अरणीअसंतो, खीरे घयं तेल्लमहा तिलेसु । एमेव जाया सरीरंसि सत्ता, समुच्छई नासइ नावचिट्टे ॥ १८ ॥ छाया-यथा चानिः अरणितोऽसन् धीरे घृतं तैलमथ तिलेषु । For Private And Personal Use Only
SR No.020382
Book TitleIkshukaradhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchandji Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashak Samiti
Publication Year1927
Total Pages77
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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